Wednesday, 29 January 2020

वन हरियाली या पारिस्थितिकी संतुलन

उत्तराखंड के लिए वन हरियाली या पारिस्थितिकी संतुलन बनाए रखने का पर्याय मात्र नहीं है यहां की 80 % जनता के जीवन का आधार भी वन ही है. बीसवीं सदी के उत्तरार्ध में औपनिवेशिक सत्ता ने जब वनों का वर्गीकरण कर उन पर सरकारी नियंत्रण करना आरंभ किया तब से लेकर उत्तराखंड स्थानीय लोगों की वनों पर नैसर्गिक अधिकारों के लिए लड़ाई जारी है यह लड़ाई मात्र वन उत्पाद प्राप्त करने के अधिकार तक सीमित नहीं है वरन यह पर्यावरण संरक्षण के आंदोलन का पर्याय बन चुके चिपको आंदोलन जैसे संघर्ष भी इसमें अंतर्निहित है. वन संरक्षण के सरकारी प्रबंधन के समांतर सामुदायिक या व्यक्तिगत स्तर पर लोगों ने अनेक उदाहरण प्रस्तुत किए हैं रक्षा सूत्र आंदोलन मैती आंदोलन सच्चिदानंद भारती विश्वेश्वर दत्त सकलानी जैसे लोग वन संरक्षण के सफल प्रयास उत्तराखंड वासियों को वन उत्पादों के उपभोक्ता होते हुए उन्हें स्वभाव से एक चौकीदार भी साबित करते हैं.. उत्तराखंड के कुल क्षेत्रफल 53483 का 64.84 प्रतिशत यानी 34661 वर्ग किमी क्षेत्र वन विभाग के नियंत्रण में है यह क्षेत्र विविधता की दृष्टि से महत्वपूर्ण होने के कारण उत्तराखंड में अन्य हिमालई क्षेत्रों की अपेक्षा संरक्षित क्षेत्रों का क्षेत्रफल अत्यधिक है राज्य में 1 बायोस्फीयर रिजर्व 7 नेशनल पार्क और 7 अभ्यारण अस्तित्व में है और ऐसे कई क्षेत्र चिन्हित किए गए हैं जिन्हें भविष्य में संरक्षित कर दिया जाना है... ग्रामीण जीवन आज भी प्राकृतिक संसाधनों जल जंगल और जमीन पर ही टिका हुआ है ग्रामीणों के जीवन यापन में खर्च हो रहे इन संसाधनों को यदि पैसे की कीमत में बदल कर देखा जाए तो उत्तराखंड को मनी ऑर्डर इकॉनमी कहने वाले अर्थशास्त्रियों को अपने निष्कर्ष बदलने पर मजबूर होना पड़ेगा. ऐतिहासिक तथ्य बताते हैं कि ब्रिटिश औपनिवेशिक राज के आने से पूर्व उत्तराखंड के लोग अपने वनों के अकेले मालिक थे अंग्रेजों ने जब यहां के वन संसाधनों का दोहन करने के लिए वनों का वर्गीकरण किया तो उन्हें स्थानीय जनों के तीखे तेवर का सामना करना पड़ा. लेकिन स्थानीय जनों को कुछ सीमित अधिकार तो प्राप्त हुए किंतु वनों पर सरकारी नियंत्रण की प्रक्रिया निरंतर चलती रही आजादी और अलग उत्तराखंड राज्य बन जाने के बाद भी यह सिलसिला जारी है वर्तमान में भी अभ्यारण नेशनल पार्क और कभी विश्व बैंक की जेएफएम परियोजना (संयुक्त वन प्रबंधन परियोजना)के रूप में यह दबाव दिखाई पड़ रहा है वनों का वर्गीकरण निम्न है। 1- आरक्षित वन- इस श्रेणी में वन विभाग के स्वामित्व वाले जंगल आते हैं इन वनों में जनता के लिए कुछ चराई, गिरी पड़ी लकड़ी उठाना, हक प्राप्त करने के लिए अधिकारियों द्वारा अनुमति दी जाती है जिसके एवज में स्थानीय जनता से यह अपेक्षा भी की जाती है कि वह जंगलों की रक्षा करें वह आग बुझाने जैसे कार्यों में मदद करें .. 2- रक्षित वन - इन वनों में सिविल वन. कटक पालिका वन नगरपालिका वन आते हैं जिस पर राजस्व विभाग का नियंत्रण रहता है लेकिन तकनीकी सलाह वन विभाग से ली जाती है 3- राष्ट्रीय उद्यान व अभयारण्य इन्हें संरक्षित क्षेत्र भी कहा जाता है यह वन्य जंतुओं के लिए सुरक्षित स्थान होता है जिससे उनकी संख्या में वृद्धि हो और वह विलुप्त ना हो जाए इसीलिए इन क्षेत्रों में सभी प्रकार की मानव गतिविधियां समाप्त कर दी जाती है वर्तमान में 1991 में लाए गए अधिनियम से प्रतिबंध की दृष्टि से अभयारण्य और राष्ट्रीय पार्क समान हो गए हैं 4- बायोस्फीयर रिजर्व - इस क्षेत्र में कोई कानूनी मान्यता नहीं है इस रिजर्व में मानव व प्रकृति के सह अस्तित्व विकास की अवधारणा अंतर्निहित है उत्तराखंड में नंदा देवी बायोस्फीयर रिजर्व घोषित है 5- वन पंचायत- वन संसाधनों को चिरस्थाई बनाने और उनके विवेक पूर्ण दोहन के लिए उत्तराखंड में वन पंचायत , लठ पंचायत .देववन जैसे तरीके इजाद किए गए हैं इनका प्रबंधन प्रारंभ से ही ग्रामीणों द्वारा अपने अनुभव से अर्जित ज्ञान और सहमति के द्वारा किया जाता रहा है 1927 के वन अधिनियम के तहत ब्रिटिश औपनिवेशिक काल में वनों पर सरकारी नियंत्रण के पश्चात सर्वप्रथम 1931 में वन पंचायत प्रणाली अस्तित्व में आई जिसमें वन क्षेत्र का संरक्षण तथा वन उत्पाद प्राप्त करने के लिए उप नियम बनाने का अधिकार ग्रामीणों के पास होता है पंचायत की भांति वन पंचायत में भी महिलाओं को 50% आरक्षण प्राप्त है.. केदारनाथ वन्य जीव विहार जनपद चमोली तथा रुद्रप्रयाग में 957 वर्ग किमी क्षेत्रफल में फैला है इसकी स्थापना सन् 1972 में की गयी , यहाँ मुख्यतः भूरा भालू, कस्तूरी मृग, हिम तेंदुआ, घुरल, काकड़ , जंगली सूअर आदि जीव पाये जाते है , यह उत्तराखंड का सबसे अधिक क्षेत्रफल वाला वन्य जीव विहार है| नन्धौर वन्य जीव विहार जनपद नैनीताल व चम्पावत में 270 वर्ग किमी क्षेत्रफल में फैला है इसकी स्थापना सन् 2012 में की गयी, यहाँ पर मुख्यतः भालू, बाघ, लंगूर आदि जानवर पाये जाते है द नेशनल टाइगर कंज़र्वेशन अथॉरिटी (NTCA) ने नंधौर वाइडलाइफ़ सैंक्चुअरी को राज्य में तीसरा टाइगर रिजर्व बनाने की सिफारिश की है। उत्तराखंड में 215 बाघों के साथ दुनिया के किसी भी रिजर्व में सबसे अधिक बाघों की आबादी है. नंधौर बाघ संरक्षण के लिए काफी आशाजनक है। इससे पहले यह भारतीय पर्यावरण और वन मंत्रालय द्वारा एक वन्यजीव अभयारण्य नंधौर परिदृश्य एक आरक्षित वन था। नंधौर मुख्य रूप से एक नमकीन जंगल है और 2002 के बाद से शिवालिक हाथी रिजर्व का एक हिस्सा रहा है। यह 2004 में था कि भारतीय वन्यजीव संस्थान ने नंधौर को एक संभव निवास स्थान के रूप में मान्यता दी थी। यह अभयारण्य तराई आर्क लैंडस्केप का एक हिस्सा है जो भारत में उत्तराखंड से नेपाल तक फैला हुआ है।. डॉक्टर अजय रावत ने बताया है की हाथियों के द्वारा जंगल में किसी एक स्थान पर मूत्र त्याग किया जाता है बाद में उस जगह पर से जंगल के अन्य जानवर अपने शरीर में नमक की पूर्ति करते हैं पर्यावरण से संबंधित कुछ अन्य अधिनियम- जलु प्रदूषण संबंधी-कानून रीवर बोडर्स एक्ट, 1956 जल (प्रदूषण निवारण एवं नियंत्रण ) अधिनियम, 1974 जल उपकर (प्रदूषण निवारण एवं नियंत्रण ) अधिनियम, 1977 पर्यावरण (संरक्षण) अधिनियम, 1986 वायु प्रदूषण संबंधी कानून फैक्ट्रीज एक्ट, 1948 इनफ्लेमेबल्स सबस्टा<सेज एक्ट, 1952 वायु (प्रदूषण निवारण एवं नियंत्रण ) अधिनियम, 1981 पर्यावरण (संरक्षण) अधिनियम, 1986 भूमि प्रदूषण संबंधी कानून फैक्ट्रीज एक्ट, 1948 इण्डस्ट्रीज (डेवलपमेंट एंड रेगुलेशन) अधिनियम, 1951 इनसेक्टीसाइडस एक्ट, 1968 अर्बन लैण्ड (सीलिंग एण्ड रेगयुलेशन) एक्ट, 1976 वन तथा वन्यजीव संबंधी कानून फोरेस्टस कंजरवेशन एक्ट, 1960 वाइल्ड लाईफ प्रोटेक्शन एक्ट, 1972 फोरेस्ट (कनजरवेशन) एक्ट, 1980 वाइल्ड लाईफ (प्रोटेक्शन) एक्ट, 1995 जैव-विविधता अधिनियम, 2002

Monday, 2 December 2019

पहाड़ का पानी और जवानी पहाड़ के काम नहीं आती ..जल जंगल जमीन और हम

    मानव सभ्यता के प्रारम्भ से ही मनुष्य का जंगल से गहरा रिश्ता रहा है। हवा, पानी तथा भोजन जंगलों से जुटाए जाते रहे हैं। उत्तराखण्ड में जीवनयापन का मुख्य आधार खेती और पशुपालन रहा है। इन दोनों का आधार स्थानीय वनों से प्राप्त होने वाली उपज है। जलाने के लिए ईंधन की पूर्ति, खेती में प्रयुक्त होने वाले औजार, खाद हेतु पत्तियाँ, जड़ी-बूटी, जानवरों के लिए चारा और घास, घर बनाने के लिए लकड़ी के सबसे बड़े स्रोत स्थानीय वन ही रहे हैं। उत्तराखंड एक करोड़ 86 लाख मनुष्य के साथ-साथ प्राकृतिक संसाधनों का भी घर है जल जंगल और जमीन जैसे प्राथमिक संसाधन यहां पर प्रचुर और पर्याप्त मात्रा में है उत्तराखंड निर्माण से पूर्व पृथक राज्य की मांग का एजेंडा था कि यहां के प्राकृतिक संसाधनों को अपने रोजगार और स्वालंबन का आधार बनाया जाएगा व राज्य बनने पर रोजगार के अवसर बढ़ेंगे रोजी-रोटी की तलाश में पढ़ने लिखने खेलने कूदने की उम्र में अपना गांव छोड़ सुदूर मैदानों की खाक छानने की यातना से मुक्ति मिलेगी वह उत्तराखंड में अपना पृथक स्वायत्त अर्थ तंत्र आकार लेगा लेकिन राज्य तो बन के बन गया लेकिन ना रोजगार के अवसर बढ़े और ना ही पलायन का वेग कम हुआ.
    उत्तराखंड मध्य हिमालयी क्षेत्र है हिमालय के पर्यावरण और मनुष्य के बीच अगर बात करें तो हिमालय अपनी पारिस्थितिकी के अलावा अपने साथ पल रहे मानव और अन्य जीवो का भी पालनहार है.. उत्तराखंड में पानी इतना ज्यादा है कि देश के 8 राज्यों के अलावा बांग्लादेश तक फैले करोड़ों लोगों और खेतों की प्यास बुझा रहा है यहां पर जल विद्युत उत्पादन की कई संभावनाएं चिन्हित हैं वन पहले की तरह घने नहीं है किंतु पहाड़ों का आवरण बने हुए हैं अब तक जो विकास नीतियां बनी है उसमें हिमालय के दोनों पक्षों में संतुलन स्थापित नहीं किया गया है पारिस्थितिकी को बचाने के नाम पर स्थानीय लोगों की सदियों पुरानी वन आधारित जीवन शैली को समाप्त कर नेशनल पार्क और अभयारण्य का निर्माण जैसे कदम उठाए गए हैं उत्तराखंड में कुल क्षेत्रफल 53483 का 64.81% क्षेत्र वन विभाग के नियंत्रण में है राज्य में 14% भूमि निजी स्वामित्व अथवा कृषि भूमि है इसी में औद्योगिक क्षेत्र भी है पहाड़ी क्षेत्रों में निजी स्वामित्व की भूमि मात्र 7.75% है इसी नाम मात्र की भूमि पर बढ़ती जनसंख्या नगरीकरण और विकास परियोजनाओं का दबाव है और इसी को आधार बनाकर राज्य सरकार द्वारा जैविक खेती बागवानी जड़ी बूटियों जैसे कार्यक्रम की घोषणा कर रही हैं वन पंचायतें ग्रामीण अर्थव्यवस्था की रीढ़ है यह सामूहिक रूप से संचालित की जाने वाली वन प्रबंधन की मिसाल है जो वन संरक्षण के बीच संतुलन को भी बनाए हुए हैं प्रारंभ में यह कार्य ग्रामीण बिना किसी आर्थिक स्वार्थ के करते आ रहे थे लेकिन वर्तमान में सरकार द्वारा विश्व बैंक के कर्ज से संचालित की जा रही संयुक्त वन प्रबंधन परियोजना इसमें थोप दी गई है जिसके बाद ग्रामीणों का दृष्टिकोण बदल गया वह वह वनो को नगद कमाने का जरिया समझने लगे हैं जैव विविधता की दृष्टि से महत्वपूर्ण होने के कारण उत्तराखंड मैं अन्य क्षेत्रों की अपेक्षा संरक्षित क्षेत्रों का क्षेत्रफल अत्यधिक है राज्य में एक बायोस्फीयर 7 नेशनल पार्क और 7 अभ्यारण अवस्थित है वन पंचायतों का संचालन शासन द्वारा निर्मित एक नियमावली के अधीन किया जाता है जिसमें वन क्षेत्र का संरक्षण तथा वन उत्पाद प्राप्त करने के उपनियम बनाने का अधिकार ग्रामीणों के पास होता है.. जल जंगल और जमीन की स्थितियां उत्तराखंड के लिए यहां के मनुष्य और प्राकृतिक संसाधनों के रिश्ते पर आधारित दिखाई पड़ती है जिसे हमारी सरकारें लगातार नजरअंदाज कर रही हैं सच्चाई यह है कि निजी स्वामित्व की भूमि का आकार बढ़ती जरूरतों के विपरीत निरंतर सिकुड़ता जा रहा है इसके उपयोग का कोई तरीका खोज निकालना होगा अन्यथा प्रति व्यक्ति भूमि की उपलब्धता बढ़ाने के लिए गैर वन वाली वन भूमि स्थानीय समुदाय को लौटाए बिना दूसरा रास्ता नहीं है.
    ग्रामीण जीवन आज भी प्राकृतिक संसाधनों तथा जल जंगल और जमीन पर ही टिका हुआ है ग्रामीणों के जीवन यापन में खर्च हो रहे इन संसाधनों को यदि पैसे की कीमत में बदल कर देखा जाए तो उत्तराखंड को मनीआर्डरी कहने वाले अर्थशास्त्रियों को अपने निष्कर्ष बदलने पर मजबूर होना पड़ेगा प्रारंभ में ब्रिटिश काल के आगमन से पूर्व स्थानीय लोग वनों के मालिक थे अंग्रेजों को जब यहां की प्राकृतिक वन संपदा का पता चला तो वह इसके दोहन के लिए ललक पड़े उत्तराखंड राज्य बन जाने के बाद भी यह सिलसिला जारी है कभी अभ्यारण. नेशनल पार्क कभी विश्व बैंक की परियोजना के रूप में यह दबाव दिखाई पड़ रहे हैं नई वन पंचायत नियमावली और नवीनतम दृष्टिकोण के जरिए स्थानीय लोग उनके नैसर्गिक अधिकारों से वंचित होते जा रहे हैं यह कार्य अंग्रेजों ने धीरे-धीरे शुरू किया जो व्यापारिक रूप से आजादी के बाद तक चलता रहा इस प्रकार जंगल के वर्तमान स्वरूप सामने हैं....

Friday, 29 November 2019

सूर्योदय और सूर्यास्त...

प्रकृति की दो प्रक्रियाएँ हमेशा से ही आकर्षित करती रही हैं। वो हैं - सूर्योदय और सूर्यास्त। भोर की वेला का आकर्षण होता है सूर्योदय और वैसे ही साँझ वेला का मुख्य आकर्षण सूर्यास्त होता है। मुझे अच्छी तरह से याद है कि बचपन में स्कूल की दीवारों पर लिखी हुई सूक्तियों में एक यह भी हुआ करती थी कि "सूर्य न तो अस्त होता है और न उदय, हम ही जागकर सो जाते हैं।" अब बाल मन ने कहावत पढ़ी और अनदेखा कर दिया, हर दिन। उस समय इस कहावत के खगोलीय और दार्शनिक महत्व के बारे में ज्यादा पता न था। और अब हालत ये है कि सूर्योदय और सूर्यास्त को देखते ही मेरे अंदर का दार्शनिक जाग उठता है। हालाँकि दिनचर्या ऐसी है कि इनको देखना कम ही हो पाता है। और ऐसा भी नहीं है कि सूर्योदय को देखकर सबके मन में सिर्फ दार्शनिक विचार ही आते हैं। लेखक जरॉड किंट्ज़ ने तो सूर्य के चाल-चलन की ही शिकायत कर दी। कारण भी ये कि भोर में सूर्य रेंगते हुए खिड़कियों पर चढ़ आता हैं और वहां से झांकता है। लेकिन घबराइये नहीं। सूर्य के चरित्र-हनन का मेरा कोई इरादा नहीं है। कभी कभी सोचता हूँ कि मनुष्य को सूर्योदय और सूर्यास्त क्यों अच्छा लगता है। सूर्योदय को अच्छा लगने के पीछे यह कारण हो सकता है कि मनुष्य की इस धारणा की पुष्टि होती है कि अंधकार नित्य नहीं रहेगा। हमारी संस्कृति में अंधकार को बुराई और प्रकाश को अच्छाई का प्रतीक माना गया है। प्रतिदिन सूर्योदय उस बुराई पर अच्छाई की विजय का प्रतीक है। और सहज ही समझा जा सकता है कि पुराने समय में लोग सूर्योदय की इतनी बेसब्री से प्रतीक्षा क्यों करते होंगे। और रही बात सूर्यास्त की तो उसको भी अच्छाई-बुराई से जोड़ते हुए यह कहा जा सकता है कि लोगों को पता है कि यह जो अँधेरा सूर्यास्त ला रहा है वो क्षणिक है, कल फिर सूर्योदय होगा और अंधकार पराजित होगा। इसलिए वो उत्साह से भोर का इंतज़ार करते हैं। कभी यह नहीं सोचा था कि सूर्योदय और सूर्यास्त में ज्यादा कौन अच्छा लगता है। मुझसे यह प्रश्न हिंदी साहित्य जगत के नवांकुरों में से एक ने पूछा था। मैंने थोड़ा सोचा इस बारे में, लेकिन बुद्धिजीवियों को संतुष्ट कर पाने वाला जवाब नहीं मिला। मैंने बताया कि सूर्यास्त ज्यादा अच्छा लगता है क्योंकि वो आँखों को ज्यादा सुखदायी होता है। तब उस नवांकुर ने बताया , "किसी चीज की सुंदरता का एहसास तब ज्यादा होता है जब वह हमसे दूर जा रही हो, बजाय इसके कि जब वह चीज हमारे पास आई हो और काफी दिन तक साथ रहे। और जब हम किसी चीज को जाते हुए देखते तो ही हमें इस चीज का एहसास होता है ... शायद यह जवाब सही भी है हमारी जिंदगी के हिसाब से.....

पहाड़ का हरा सोना

*पहाड़ का हरा सोना बांज* बांज (ओक) को पहाड़ का हरा सोना कहा जाता है। पहाड़ के पर्यावरण,खेती- बाड़ी, समाज व संस्कृति से गहरा ताल्लुक रखने वाला बांज धीरे-धीरे जंगलों से गायब होता जा रहा है। बाज हिमालय की बहूउपयोगी वृक्ष संपदा है जो चारा जलावन खाद कृषि यंत्र और वन्यजीवों को आहार देने के साथ ही पर्यावरण में नमी बनाकर जल संचय करता है वैज्ञानिकों का मानना है कि बांज वनों की मिट्टी में पानी को संचय करने की क्षमता 56 - 70% तक है इसकी पत्तियों में 10% तक प्रोटीन पाई जाती है जो जानवरों के लिए अत्यंत पौष्टिक है। इसका वानस्पतिक नाम क्योरकस ल्यूकोटराकोपोफोरा है. दुनिया भर में बांज की 41 भारत में 12 और उत्तराखंड में 5 प्रजातियां पाई जाती हैं उत्तराखंड में यह 1000 से 3600 मीटर तक मौजूद है यहां इसे फल्याॅट बांज तिलौंज खरसू व रियाॅज / मोरू के नाम से जाना जाता है जंगलों में पशुओं की मुक्त चराई से भी बांज के नवजात पौधों को बहुत नुकसान पहुंचता रहा है। ब्रिटिश काल में उत्तराखंड में कई स्थानों पर चाय और फलों के बाग लगाने के लिये भी बांज वनों का सफाया किया गया। सरकारी कार्यालयों में लकडी़ के कोयलों की पूर्ति के लिये भी पूर्वकाल में बड़ी संख्या में बांज के पेड़ काटे गये। उत्तराखंड का यह लोकगीतः “…नी काटा नी काटा झुमराली बांजा, बजांनी धुरो ठण्डो पाणी…” का आशय भी यही है कि लकदक पत्तों वाले बांज को मत काटो, इन बांज के जंगलों से हमें ठण्डा पानी मिलता है। 
डा0 गौरव कुमार 

Saturday, 26 October 2019

फ्वां बागा रे… इतिहास के पन्नों में....

वर्तमान में मानव वन्यजीव संघर्ष एक बड़ी चुनौती के रूप में सामने आ रहा है इसके संबंध में विभिन्न लोगों के मत सामने आ रहे हैं फ्वां बागा रे… गीत देश-विदेश टिक टॉक में यह ख्याति प्राप्त कर रहा है इस गीत के बोल मैं उत्तराखंड गढ़वाल मंडल रुद्रप्रयाग 1925 के दौर की घटनाओं से साम्यता रखते हैं जिसमें गीतकार द्वारा तत्कालीन रुद्रप्रयाग के नरभक्षी तेंदुए के खौफ को दर्शाया गया है इसका उल्लेख जिम कॉर्बेट ने अपनी पुस्तक में भी किया है 1926 के दौरान ‘रुद्रप्रयाग के नरभक्षी’ के नाम से कुख्यात हो चुके उस बाघ ने कुल 125 लोगों को अपना शिकार बनाया था. माना जाता है कि 1918 की महामारी के बाद जब लोगों ने कुछ लाशों को बिना जलाए ऐसे ही छोड़ दिया था, उन्हीं को खा कर यह बाघ नरभक्षी बन गया था. सबसे पहले उसने एक चरवाहे लड़के को उठाया उसके बाद एक औरत को उसके घर से. बाद में उसने अपने दोस्तों के साथ बीड़ी पी रहे एक आदमी को अपना शिकार बना लिया. इस नरभक्षी बाघ के किस्से दुनिया भर की पत्रिकाओं में छपना शुरू हो गए थे. एक साधु भी था जिसे सिर्फ इस वजह से अन्धविश्वासी लोगों की भीड़ ने जलाकर मार डाला क्योंकि उन्हें शक था कि उस साधु के भीतर उस नरभक्षी बाघ की आत्मा का निवास था. घोर निराशा के पश्चात सफल ना होने पर तत्कालीन ब्रिटिश सरकार द्वारा बाघ के शिकार के लिए जिम कार्बेट को यहां बुलाया गया.. कॉर्बेट का स्वागत इस तरह किया गया जैसे कि वे कोई युद्ध-नायक हों. लोग समझते थे उन्हें कोई ईश्वरीय शक्ति प्राप्त है. इधर बाघ का आतंक बढ़ता जा रहा था. बैरिस्टर मुकुन्दी लाल ने भी उसे मारने का एक असफल प्रयास किया. बात 1918 की है। करीब आठ वर्षों तक इस जंगल में तेंदुए का आतंक इस कदर था कि हर कोई इससे घबराता था। 1918 से 1926 तक गढ़वाल में करीब 500 वर्ग किलोमीटर के इलाके में शाम होते ही मौत का सन्‍नाटा पसर जाता था। ऐसे में हर कोई अपने पशुओं के साथ घरों में बंद हो जाया करता था। नरभक्षी तेंदुए का खौफ यूं ही यहां के लोगों के दिलों में नहीं बैठा था। यह तेंदुआ आठ वर्षों में 125 लोगों को अपना निवाला बना चुका था। तेंदुए को पकड़ना या मारना पूरी तरह से नाकाम साबित होता जा रहा था। इंसानों और उनके मवेशियों को शिकार बनाने वाला यह तेंदुआ बेहद शातिर भी था। वह एक दिन नदी के इस ओर शिकार करता तो दूसरे दिन दूसरी तरफ। लंबे समय तक लोगों को यही लगता रहा कि इस इलाके में दो नरभक्षी सक्रिय हैं। नरभक्षी तेंदुए के आतंक की खबरें इस इलाके से निकलकर ब्रिटेन के अखबारों की भी सुर्खियां बन चुकी थी। इतना ही नहीं ब्रिटेन की संसद में इसको लेकर हुई चर्चा में इस पर चिंता भी जताई गई। नरभक्षी तेंदुए को खत्‍म या पकड़ने के लिए आर्मी की स्‍पेशल यूनिट को भी तैनात किया गया, लेकिन उन्‍हें भी नाकामी के अलावा कुछ नहीं मिला। इस बीच तेंदुआ लगातार लोगों को अपना निवाला बनाता जा रहा था। तब यहां के गवर्नर ने मशहूर शिकारी और वन्‍यजीव प्रेमी #जिम कॉर्बेट से संपर्क किया। 1925 को उन्हें तेंदुए को मारने की इजाजत मिली। जिम #कॉर्बेट यहीं पर पैदा हुए थे और उनका जीवन इन्‍हीं पहाडि़यों और जंगल में बीता भी था। वह यहां के चप्‍पे-चप्‍पे से वाकिफ थे। उनके पिता इसी इलाके में पोस्‍टमास्‍टर के पद से रिटायर हुए थे। भारत में रहते हुए जिम ने कई नरभक्षियों से लोगों को निजाद दिलाई थी। इसका जिक्र उन्‍होंने अपनी किताब Man-Eaters of Kumaon में किया भी है। जिस वक्‍त तेंदुए को मारने के लिए जिम को कहा गया तो लोगों को भी लगने लगा था कि अब उन्‍हें जल्‍द ही इस आदमखोर से मुक्ति मिल जाएगी। इससे पहले उन्‍होंने चंपावत की नरभक्षी बाघिन को मारकर वहां के लोगों को डर से मुक्ति दिलाई थी। इस बाघिन ने कुमाऊं और नेपाल में करीब 436 लोगों को मारा था। जब नरभक्षी तेंदुए को मारने की उन्‍हें अनुमति मिल गई तो कुमाऊं से गढ़वाल पैदल ही पहुंच गए। हालांकि इस तेंदुए को मारने के लिए जिम को काफी मशक्‍कत करनी पड़ी थी। यह तेंदुआ उनकी सोच से ज्‍यादा चालाक भी था। एक तरफ जिम लगातार तेंदुए की खोज में रात दिन एक कर रहे थे, तो दूसरी तरफ वह एक के बाद एक इंसानों को अपना शिकार बनाता जा रहा था। शिकार बनने से पहले तेंदुए ने कई बार जिम को छकाया और उनकी गोली का निशाना बनने से बच गया। आखिरकार 26 मई 1926 की रात को जिम ने इस तेंदुए को मारने के लिए जाल बिछाया। इस रात को उनकी युक्ति काम कर रही थी और तेंदुआ भी उनके बिछाए जाल में फंसता जा रहा था। तेंदुए को देखते ही जिम ने उस पर गो‍ली दाग दी और कुछ ही पलों में तेंदुआ रात के सन्‍नाटे में जंगल में कहीं गायब हो गया। हालांकि इस सन्‍नाटे में उसके तेजी से गुर्राने की आवाज जरूर सुनाई दी। जिम उस वक्‍त तक नहीं जानते थे कि तेंदुआ जिंदा है या मारा गया है। इस पुष्टि के लिए जिम ने तेंदुए की तलाश की जो अगली सुबह रुद्रप्रयाग के पास पहाड़ में खत्‍म हुई। तेंदुआ वहां पर बुरी तरह से घायल मिला, जिम ने उसको देखते ही दूसरी गोली उसके आर-पार कर दी। तेंदुआ अब पूरी तरह से मर चुका था। तेंदुए की मौत के साथ ही लोगों को उसके आतंक से भी निजाद मिल चुकी थी। लेकिन जिम को उसको खत्‍म करने की खुशी तो थी, लेकिन साथ ही दुख भी था। उनका वन्‍यजीव प्रेम उनकी खुशी में बाधक बन रहा था। जिम कॉर्बेट ने जब उस बूढ़े तेंदुए को देखा तो पता चला कि कुछ शिकारियों की नाकाम कोशिश की वजह से तेंदुआ अपना एक नुकीला दांत खो बैठा था। इसकी वजह से वह जानवरों का शिकार नहीं कर पाता था, लिहाजा उसका रुख इंसानों की तरफ हो गया था। इंसान उसके लिए आसान शिकार था। जिम ने मृत पड़े तेंदुए को प्‍यार से सहलाया। उस वक्‍त वह तेंदुए की मौत से व्‍याकुल थे। ‍इसके बाद उन्‍होंने लोगों को वन्‍यजीवों के प्रति जागरुक बनाने और उन्‍हें बचाने की मुहिम भी छेड़ी.. जिम कॉर्बेट की ही सलाह पर 1936 में #ब्रिटिशसरकार ने उत्तराखंड में एशिया का पहला नेशनल पार्क बनाया। जिम कॉर्बेट के भारत छोड़कर #केन्या जाने के बाद उनके मित्र और उत्तर प्रदेश के पहले मुख्यमंत्री गोविंद बल्लभ पंत ने पार्क का नाम जिम कॉर्बेट नेशनल पार्क कर दिया। देश और एशिया के इस पहले नेशनल पार्क का नाम तीन बार बदला। 1936 से पहले इसका नाम #हेलीनेशनल पार्क हुआ करता था। यह नाम उस समय यहां के गवर्नर मालकम हेली के नाम पर रखा गया था। आजादी के बाद इसका मशहूर वन्‍यजीव प्रेमी और निशानेबाज जिम कॉर्बेट के नाम पर कॉर्बेट नेशनल पार्क कर दिया गया। 1954-55 में इसका नाम फिर बदला और इसको #रामगंगानेशनल पार्क कर दिया। लेकिन एक वर्ष बाद ही इसको दोबारा #कॉर्बेटनेशनलपार्क कर दिया गया। वर्तमान में भी #मानववन्यजीवसंघर्ष घटनाएं बढ़ रही है इस स्थिति में उत्तराखंड में #आदमखोर घोषित होने पर उसके शिकार के लिए #लखपतसिंह को बुलाया जाता है लखपत सिंह अब तक 53 आदमखोरों का शिकार कर चुके हैं। उत्तराखंड के प्रमुख शिकारी लखपत सिंह रावत पेेशे से तो शिक्षक है लेकिन वह शिकारी के नाम से विख्यात है। वर्तमान में गैरसैण बीआरसी में समन्वयक पद पर तैनात है लखपत सिंह ने पहला नरभक्षी बाघ का शिकार 2001 में किया था। 2011 तक वह कई नरभक्षी बाघों का शिकार करके जिम कॉर्बेट का रिकार्ड तोड़ चुके थे। लखपत सिंह के दादा लक्षम सिंह ब्रिटिश शासनकाल में सेनानी थे और सेना से रिटायर होने के बाद भी अंग्रेज उन्हें शिकार के लिए बुलाया करते थे। पत्र-पत्रिकाओं पुस्तक साक्षात्कार पर आधारित.. गौरव कुमार शोधार्थी इतिहास विभाग डीएसबी परिसर कुमाऊं विश्वविद्यालय नैनीताल

Saturday, 14 September 2019

ये दिल मांगे मोर

काजुओ इशीगुरो जापान के नोबेल पुरस्कार विजेता साहित्यकार हैं। वह अपने उपन्यास के कथानक में सत्य की खोज के लिए जाने जाते हैं। उनका अंदाज एक आध्यात्मिक खोजी की तरह होता है। वह कहते हैं, हमारे समाज की सबसे बड़ी दिक्कत है कि हम अपने भीतर के उलझावों को सुलझाने पर विचार नहीं करते। यह दौर है ‘कुछ और चाहिए’ का। हम संतुष्ट नहीं हैं। हमारी खोज हमेशा जारी है। अच्छा खाना, अच्छा पहनना, मनोरंजन के तमाम साधन थोड़ी देर अच्छे लगते हैं और फिर हमें कुछ और की जरूरत होती है। सामने चुटकुलों की भी भरमार है, पर हम हंसते हुए कम ही देखे जाते हैं। हमारा मन व्यर्थ की बातों में उलझा रहता है, यह जीवन के असली कारणों पर विचार ही नहीं करता। हमारी दिशा आंतरिक कम से कम होती है। उन्होंने एक किताब लिखी है- ऐन आर्टिस्ट ऑफ द फ्लोटिंग वर्ल्ड। इसका सूत्रधार एक वृद्ध जापानी चित्रकार है, जो अतीत में किए गए अपने कुकमार्ें के कारण घुटन महसूस करता है और वह अपने भीतर उतरता जाता है। उसके हाथ सत्य का सूत्र आता है। आज तो हमारे पास अपनी घुटन पर विचार करने तक की फुरसत नहीं। हॉर्वर्ड यूनिवर्सिटी के माइंड बॉडी मेडिकल इंस्टीट्यूट के डॉक्टर हर्बर्ट बेंसन कहते हैं कि विचारों को बदलना सीखना होगा, तभी जीवन को जिया जा सकता है। वह कहते हैं कि सेवा, भक्ति, प्रेम, निष्ठा, शांति, दया आदि से अपने को परिपूर्ण रखें। अपने अध्ययन में उन्होंने पाया कि जो ऐसा करते हैं, उनका अपनी सांस और शारीरिक गति पर भी नियंत्रण रहता है। वे कुछ और पाने से ज्यादा कुछ और देने की दिशा में आगे बढ़ते हैं।

अंतरात्मा की आवाज

नागार्जुन बहुत बड़े बौद्ध रहस्यदर्शी थे, जो एक मठ में अकेले रहते थे। महारानी ने उनसे प्रभावित होकर उन्हें सोने का भिक्षा पात्र भेंट किया। नागार्जुन स्वर्ण पात्र लेकर आ रहे थे, तो एक चोर ने उन्हें देखा और उनके पीछे लग गया। नागार्जुन घर जाकर भोजन करने बैठे, चोर बाहर इंतजार करने लगा। नागार्जुन ने भोजन करके भिक्षा पात्र को बाहर फेंक दिया। चोर हैरान हुआ, वह अंदर आया और पूछा- आपने इतना कीमती कटोरा बाहर क्यों फेंक दिया? नागार्जुन बोले, मैंने अपने भीतर इससे भी कीमती हीरा पा लिया है। चोर ने कहा, मुझे भी वह पाना है। कैसे पाऊं? नागार्जुन ने कहा, तुम चोरी करना जारी रखो, बस उसे होशपूर्वक करो। एक-एक क्रिया पर ध्यान दो- यह मैंने ताला तोड़ा, ऐसी चीजें उठाईं, जो मेरी नहीं हैं। जिनके गहने ले जा रहा हूं, वे महिलाएं दुखी होंगी। फिर चोरी करके वापस आओ और ध्यान करने बैठ जाओ। चोर खुश होकर चला गया। चार दिन बाद वापस आया और बोला, आपने मुझे बुरा फंसाया। अब न मैं चोरी कर सकता हूं और न ध्यान। चोरी करने जाऊं , तो मेरी अंतरात्मा कचोटती है। आजकल अंतरात्मा वगैरह के बारे में ज्यादा चर्चा नहीं होती। कानों में लगे ईयर फोन अंतरात्मा को कहां सुनने देंगे? वैसे अंतरात्मा की कोई आवाज नहीं होती, उसका कोई स्वर नहीं है, वह भीतर से होने वाली प्रतीति है। जब आप गहरे मौन में डूबते हैं, तब स्वयं से जुड़ जाते हैं, उस भीतरी आकाश में सच के अलावा कुछ नहीं होता। उसे आवाज इसलिए कहते हैं, क्योंकि नि:शब्द मौन भी शब्द का ही रूप है। शब्द एक ध्वनि है। वह जब गहरे उतरती है, तो सिर्फ तरंग रह जाती है। इस स्थिति को उपनिषद् में पश्यंती कहा गया है। abhar hindustan...