Friday, 29 November 2019
सूर्योदय और सूर्यास्त...
प्रकृति की दो प्रक्रियाएँ हमेशा से ही आकर्षित करती रही हैं। वो हैं - सूर्योदय और सूर्यास्त। भोर की वेला का आकर्षण होता है सूर्योदय और वैसे ही साँझ वेला का मुख्य आकर्षण सूर्यास्त होता है। मुझे अच्छी तरह से याद है कि बचपन में स्कूल की दीवारों पर लिखी हुई सूक्तियों में एक यह भी हुआ करती थी कि "सूर्य न तो अस्त होता है और न उदय, हम ही जागकर सो जाते हैं।" अब बाल मन ने कहावत पढ़ी और अनदेखा कर दिया, हर दिन। उस समय इस कहावत के खगोलीय और दार्शनिक महत्व के बारे में ज्यादा पता न था। और अब हालत ये है कि सूर्योदय और सूर्यास्त को देखते ही मेरे अंदर का दार्शनिक जाग उठता है। हालाँकि दिनचर्या ऐसी है कि इनको देखना कम ही हो पाता है। और ऐसा भी नहीं है कि सूर्योदय को देखकर सबके मन में सिर्फ दार्शनिक विचार ही आते हैं। लेखक जरॉड किंट्ज़ ने तो सूर्य के चाल-चलन की ही शिकायत कर दी। कारण भी ये कि भोर में सूर्य रेंगते हुए खिड़कियों पर चढ़ आता हैं और वहां से झांकता है। लेकिन घबराइये नहीं। सूर्य के चरित्र-हनन का मेरा कोई इरादा नहीं है।
कभी कभी सोचता हूँ कि मनुष्य को सूर्योदय और सूर्यास्त क्यों अच्छा लगता है। सूर्योदय को अच्छा लगने के पीछे यह कारण हो सकता है कि मनुष्य की इस धारणा की पुष्टि होती है कि अंधकार नित्य नहीं रहेगा। हमारी संस्कृति में अंधकार को बुराई और प्रकाश को अच्छाई का प्रतीक माना गया है। प्रतिदिन सूर्योदय उस बुराई पर अच्छाई की विजय का प्रतीक है। और सहज ही समझा जा सकता है कि पुराने समय में लोग सूर्योदय की इतनी बेसब्री से प्रतीक्षा क्यों करते होंगे। और रही बात सूर्यास्त की तो उसको भी अच्छाई-बुराई से जोड़ते हुए यह कहा जा सकता है कि लोगों को पता है कि यह जो अँधेरा सूर्यास्त ला रहा है वो क्षणिक है, कल फिर सूर्योदय होगा और अंधकार पराजित होगा। इसलिए वो उत्साह से भोर का इंतज़ार करते हैं।
कभी यह नहीं सोचा था कि सूर्योदय और सूर्यास्त में ज्यादा कौन अच्छा लगता है। मुझसे यह प्रश्न हिंदी साहित्य जगत के नवांकुरों में से एक ने पूछा था। मैंने थोड़ा सोचा इस बारे में, लेकिन बुद्धिजीवियों को संतुष्ट कर पाने वाला जवाब नहीं मिला। मैंने बताया कि सूर्यास्त ज्यादा अच्छा लगता है क्योंकि वो आँखों को ज्यादा सुखदायी होता है। तब उस नवांकुर ने बताया , "किसी चीज की सुंदरता का एहसास तब ज्यादा होता है जब वह हमसे दूर जा रही हो, बजाय इसके कि जब वह चीज हमारे पास आई हो और काफी दिन तक साथ रहे। और जब हम किसी चीज को जाते हुए देखते तो ही हमें इस चीज का एहसास होता है ... शायद यह जवाब सही भी है हमारी जिंदगी के हिसाब से.....
पहाड़ का हरा सोना
*पहाड़ का हरा सोना बांज*
बांज (ओक) को पहाड़ का हरा सोना कहा जाता है। पहाड़ के पर्यावरण,खेती- बाड़ी, समाज व संस्कृति से गहरा ताल्लुक रखने वाला बांज धीरे-धीरे जंगलों से गायब होता जा रहा है। बाज हिमालय की बहूउपयोगी वृक्ष संपदा है जो चारा जलावन खाद कृषि यंत्र और वन्यजीवों को आहार देने के साथ ही पर्यावरण में नमी बनाकर जल संचय करता है वैज्ञानिकों का मानना है कि बांज वनों की मिट्टी में पानी को संचय करने की क्षमता 56 - 70% तक है इसकी पत्तियों में 10% तक प्रोटीन पाई जाती है जो जानवरों के लिए अत्यंत पौष्टिक है। इसका वानस्पतिक नाम क्योरकस ल्यूकोटराकोपोफोरा है. दुनिया भर में बांज की 41 भारत में 12 और उत्तराखंड में 5 प्रजातियां पाई जाती हैं उत्तराखंड में यह 1000 से 3600 मीटर तक मौजूद है यहां इसे फल्याॅट बांज तिलौंज खरसू व रियाॅज / मोरू के नाम से जाना जाता है जंगलों में पशुओं की मुक्त चराई से भी बांज के नवजात पौधों को बहुत नुकसान पहुंचता रहा है। ब्रिटिश काल में उत्तराखंड में कई स्थानों पर चाय और फलों के बाग लगाने के लिये भी बांज वनों का सफाया किया गया। सरकारी कार्यालयों में लकडी़ के कोयलों की पूर्ति के लिये भी पूर्वकाल में बड़ी संख्या में बांज के पेड़ काटे गये।
उत्तराखंड का यह लोकगीतः “…नी काटा नी काटा झुमराली बांजा, बजांनी धुरो ठण्डो पाणी…” का आशय भी यही है कि लकदक पत्तों वाले बांज को मत काटो, इन बांज के जंगलों से हमें ठण्डा पानी मिलता है।
डा0 गौरव कुमार
Saturday, 26 October 2019
फ्वां बागा रे… इतिहास के पन्नों में....
वर्तमान में मानव वन्यजीव संघर्ष एक बड़ी चुनौती के रूप में सामने आ रहा है इसके संबंध में विभिन्न लोगों के मत सामने आ रहे हैं फ्वां बागा रे… गीत देश-विदेश टिक टॉक में यह ख्याति प्राप्त कर रहा है इस गीत के बोल मैं उत्तराखंड गढ़वाल मंडल रुद्रप्रयाग 1925 के दौर की घटनाओं से साम्यता रखते हैं जिसमें गीतकार द्वारा तत्कालीन रुद्रप्रयाग के नरभक्षी तेंदुए के खौफ को दर्शाया गया है इसका उल्लेख जिम कॉर्बेट ने अपनी पुस्तक में भी किया है
1926 के दौरान ‘रुद्रप्रयाग के नरभक्षी’ के नाम से कुख्यात हो चुके उस बाघ ने कुल 125 लोगों को अपना शिकार बनाया था. माना जाता है कि 1918 की महामारी के बाद जब लोगों ने कुछ लाशों को बिना जलाए ऐसे ही छोड़ दिया था, उन्हीं को खा कर यह बाघ नरभक्षी बन गया था. सबसे पहले उसने एक चरवाहे लड़के को उठाया उसके बाद एक औरत को उसके घर से. बाद में उसने अपने दोस्तों के साथ बीड़ी पी रहे एक आदमी को अपना शिकार बना लिया. इस नरभक्षी बाघ के किस्से दुनिया भर की पत्रिकाओं में छपना शुरू हो गए थे. एक साधु भी था जिसे सिर्फ इस वजह से अन्धविश्वासी लोगों की भीड़ ने जलाकर मार डाला क्योंकि उन्हें शक था कि उस साधु के भीतर उस नरभक्षी बाघ की आत्मा का निवास था. घोर निराशा के पश्चात सफल ना होने पर तत्कालीन ब्रिटिश सरकार द्वारा बाघ के शिकार के लिए जिम कार्बेट को यहां बुलाया गया.. कॉर्बेट का स्वागत इस तरह किया गया जैसे कि वे कोई युद्ध-नायक हों. लोग समझते थे उन्हें कोई ईश्वरीय शक्ति प्राप्त है.
इधर बाघ का आतंक बढ़ता जा रहा था. बैरिस्टर मुकुन्दी लाल ने भी उसे मारने का एक असफल प्रयास किया.
बात 1918 की है। करीब आठ वर्षों तक इस जंगल में तेंदुए का आतंक इस कदर था कि हर कोई इससे घबराता था।
1918 से 1926 तक गढ़वाल में करीब 500 वर्ग किलोमीटर के इलाके में शाम होते ही मौत का सन्नाटा पसर जाता था। ऐसे में हर कोई अपने पशुओं के साथ घरों में बंद हो जाया करता था। नरभक्षी तेंदुए का खौफ यूं ही यहां के लोगों के दिलों में नहीं बैठा था।
यह तेंदुआ आठ वर्षों में 125 लोगों को अपना निवाला बना चुका था। तेंदुए को पकड़ना या मारना पूरी तरह से नाकाम साबित होता जा रहा था। इंसानों और उनके मवेशियों को शिकार बनाने वाला यह तेंदुआ बेहद शातिर भी था। वह एक दिन नदी के इस ओर शिकार करता तो दूसरे दिन दूसरी तरफ। लंबे समय तक लोगों को यही लगता रहा कि इस इलाके में दो नरभक्षी सक्रिय हैं।
नरभक्षी तेंदुए के आतंक की खबरें इस इलाके से निकलकर ब्रिटेन के अखबारों की भी सुर्खियां बन चुकी थी। इतना ही नहीं ब्रिटेन की संसद में इसको लेकर हुई चर्चा में इस पर चिंता भी जताई गई। नरभक्षी तेंदुए को खत्म या पकड़ने के लिए आर्मी की स्पेशल यूनिट को भी तैनात किया गया, लेकिन उन्हें भी नाकामी के अलावा कुछ नहीं मिला। इस बीच तेंदुआ लगातार लोगों को अपना निवाला बनाता जा रहा था। तब यहां के गवर्नर ने मशहूर शिकारी और वन्यजीव प्रेमी #जिम कॉर्बेट से संपर्क किया। 1925 को उन्हें तेंदुए को मारने की इजाजत मिली।
जिम #कॉर्बेट यहीं पर पैदा हुए थे और उनका जीवन इन्हीं पहाडि़यों और जंगल में बीता भी था। वह यहां के चप्पे-चप्पे से वाकिफ थे। उनके पिता इसी इलाके में पोस्टमास्टर के पद से रिटायर हुए थे। भारत में रहते हुए जिम ने कई नरभक्षियों से लोगों को निजाद दिलाई थी। इसका जिक्र उन्होंने अपनी किताब Man-Eaters of Kumaon में किया भी है। जिस वक्त तेंदुए को मारने के लिए जिम को कहा गया तो लोगों को भी लगने लगा था कि अब उन्हें जल्द ही इस आदमखोर से मुक्ति मिल जाएगी। इससे पहले उन्होंने चंपावत की नरभक्षी बाघिन को मारकर वहां के लोगों को डर से मुक्ति दिलाई थी। इस बाघिन ने कुमाऊं और नेपाल में करीब 436 लोगों को मारा था।
जब नरभक्षी तेंदुए को मारने की उन्हें अनुमति मिल गई तो कुमाऊं से गढ़वाल पैदल ही पहुंच गए। हालांकि इस तेंदुए को मारने के लिए जिम को काफी मशक्कत करनी पड़ी थी। यह तेंदुआ उनकी सोच से ज्यादा चालाक भी था। एक तरफ जिम लगातार तेंदुए की खोज में रात दिन एक कर रहे थे, तो दूसरी तरफ वह एक के बाद एक इंसानों को अपना शिकार बनाता जा रहा था। शिकार बनने से पहले तेंदुए ने कई बार जिम को छकाया और उनकी गोली का निशाना बनने से बच गया।
आखिरकार 26 मई 1926 की रात को जिम ने इस तेंदुए को मारने के लिए जाल बिछाया। इस रात को उनकी युक्ति काम कर रही थी और तेंदुआ भी उनके बिछाए जाल में फंसता जा रहा था। तेंदुए को देखते ही जिम ने उस पर गोली दाग दी और कुछ ही पलों में तेंदुआ रात के सन्नाटे में जंगल में कहीं गायब हो गया। हालांकि इस सन्नाटे में उसके तेजी से गुर्राने की आवाज जरूर सुनाई दी। जिम उस वक्त तक नहीं जानते थे कि तेंदुआ जिंदा है या मारा गया है। इस पुष्टि के लिए जिम ने तेंदुए की तलाश की जो अगली सुबह रुद्रप्रयाग के पास पहाड़ में खत्म हुई। तेंदुआ वहां पर बुरी तरह से घायल मिला, जिम ने उसको देखते ही दूसरी गोली उसके आर-पार कर दी। तेंदुआ अब पूरी तरह से मर चुका था।
तेंदुए की मौत के साथ ही लोगों को उसके आतंक से भी निजाद मिल चुकी थी। लेकिन जिम को उसको खत्म करने की खुशी तो थी, लेकिन साथ ही दुख भी था। उनका वन्यजीव प्रेम उनकी खुशी में बाधक बन रहा था। जिम कॉर्बेट ने जब उस बूढ़े तेंदुए को देखा तो पता चला कि कुछ शिकारियों की नाकाम कोशिश की वजह से तेंदुआ अपना एक नुकीला दांत खो बैठा था। इसकी वजह से वह जानवरों का शिकार नहीं कर पाता था, लिहाजा उसका रुख इंसानों की तरफ हो गया था। इंसान उसके लिए आसान शिकार था। जिम ने मृत पड़े तेंदुए को प्यार से सहलाया। उस वक्त वह तेंदुए की मौत से व्याकुल थे।
इसके बाद उन्होंने लोगों को वन्यजीवों के प्रति जागरुक बनाने और उन्हें बचाने की मुहिम भी छेड़ी..
जिम कॉर्बेट की ही सलाह पर 1936 में #ब्रिटिशसरकार ने उत्तराखंड में एशिया का पहला नेशनल पार्क बनाया। जिम कॉर्बेट के भारत छोड़कर #केन्या जाने के बाद उनके मित्र और उत्तर प्रदेश के पहले मुख्यमंत्री गोविंद बल्लभ पंत ने पार्क का नाम जिम कॉर्बेट नेशनल पार्क कर दिया।
देश और एशिया के इस पहले नेशनल पार्क का नाम तीन बार बदला। 1936 से पहले इसका नाम #हेलीनेशनल पार्क हुआ करता था। यह नाम उस समय यहां के गवर्नर मालकम हेली के नाम पर रखा गया था। आजादी के बाद इसका मशहूर वन्यजीव प्रेमी और निशानेबाज जिम कॉर्बेट के नाम पर कॉर्बेट नेशनल पार्क कर दिया गया। 1954-55 में इसका नाम फिर बदला और इसको #रामगंगानेशनल पार्क कर दिया। लेकिन एक वर्ष बाद ही इसको दोबारा #कॉर्बेटनेशनलपार्क कर दिया गया।
वर्तमान में भी #मानववन्यजीवसंघर्ष घटनाएं बढ़ रही है इस स्थिति में उत्तराखंड में #आदमखोर घोषित होने पर उसके शिकार के लिए #लखपतसिंह को बुलाया जाता है लखपत सिंह अब तक 53 आदमखोरों का शिकार कर चुके हैं।
उत्तराखंड के प्रमुख शिकारी लखपत सिंह रावत पेेशे से तो शिक्षक है लेकिन वह शिकारी के नाम से विख्यात है। वर्तमान में गैरसैण बीआरसी में समन्वयक पद पर तैनात है लखपत सिंह ने पहला नरभक्षी बाघ का शिकार 2001 में किया था। 2011 तक वह कई नरभक्षी बाघों का शिकार करके जिम कॉर्बेट का रिकार्ड तोड़ चुके थे। लखपत सिंह के दादा लक्षम सिंह ब्रिटिश शासनकाल में सेनानी थे और सेना से रिटायर होने के बाद भी अंग्रेज उन्हें शिकार के लिए बुलाया करते थे।
पत्र-पत्रिकाओं पुस्तक साक्षात्कार पर आधारित..
गौरव कुमार शोधार्थी इतिहास विभाग डीएसबी परिसर कुमाऊं विश्वविद्यालय नैनीताल
Saturday, 14 September 2019
ये दिल मांगे मोर
काजुओ इशीगुरो जापान के नोबेल पुरस्कार विजेता साहित्यकार हैं। वह अपने उपन्यास के कथानक में सत्य की खोज के लिए जाने जाते हैं। उनका अंदाज एक आध्यात्मिक खोजी की तरह होता है। वह कहते हैं, हमारे समाज की सबसे बड़ी दिक्कत है कि हम अपने भीतर के उलझावों को सुलझाने पर विचार नहीं करते। यह दौर है ‘कुछ और चाहिए’ का। हम संतुष्ट नहीं हैं। हमारी खोज हमेशा जारी है। अच्छा खाना, अच्छा पहनना, मनोरंजन के तमाम साधन थोड़ी देर अच्छे लगते हैं और फिर हमें कुछ और की जरूरत होती है। सामने चुटकुलों की भी भरमार है, पर हम हंसते हुए कम ही देखे जाते हैं। हमारा मन व्यर्थ की बातों में उलझा रहता है, यह जीवन के असली कारणों पर विचार ही नहीं करता।
हमारी दिशा आंतरिक कम से कम होती है। उन्होंने एक किताब लिखी है- ऐन आर्टिस्ट ऑफ द फ्लोटिंग वर्ल्ड। इसका सूत्रधार एक वृद्ध जापानी चित्रकार है, जो अतीत में किए गए अपने कुकमार्ें के कारण घुटन महसूस करता है और वह अपने भीतर उतरता जाता है। उसके हाथ सत्य का सूत्र आता है। आज तो हमारे पास अपनी घुटन पर विचार करने तक की फुरसत नहीं। हॉर्वर्ड यूनिवर्सिटी के माइंड बॉडी मेडिकल इंस्टीट्यूट के डॉक्टर हर्बर्ट बेंसन कहते हैं कि विचारों को बदलना सीखना होगा, तभी जीवन को जिया जा सकता है। वह कहते हैं कि सेवा, भक्ति, प्रेम, निष्ठा, शांति, दया आदि से अपने को परिपूर्ण रखें। अपने अध्ययन में उन्होंने पाया कि जो ऐसा करते हैं, उनका अपनी सांस और शारीरिक गति पर भी नियंत्रण रहता है। वे कुछ और पाने से ज्यादा कुछ और देने की दिशा में आगे बढ़ते हैं।
अंतरात्मा की आवाज
नागार्जुन बहुत बड़े बौद्ध रहस्यदर्शी थे, जो एक मठ में अकेले रहते थे। महारानी ने उनसे प्रभावित होकर उन्हें सोने का भिक्षा पात्र भेंट किया। नागार्जुन स्वर्ण पात्र लेकर आ रहे थे, तो एक चोर ने उन्हें देखा और उनके पीछे लग गया। नागार्जुन घर जाकर भोजन करने बैठे, चोर बाहर इंतजार करने लगा। नागार्जुन ने भोजन करके भिक्षा पात्र को बाहर फेंक दिया। चोर हैरान हुआ, वह अंदर आया और पूछा- आपने इतना कीमती कटोरा बाहर क्यों फेंक दिया? नागार्जुन बोले, मैंने अपने भीतर इससे भी कीमती हीरा पा लिया है। चोर ने कहा, मुझे भी वह पाना है। कैसे पाऊं? नागार्जुन ने कहा, तुम चोरी करना जारी रखो, बस उसे होशपूर्वक करो। एक-एक क्रिया पर ध्यान दो- यह मैंने ताला तोड़ा, ऐसी चीजें उठाईं, जो मेरी नहीं हैं। जिनके गहने ले जा रहा हूं, वे महिलाएं दुखी होंगी। फिर चोरी करके वापस आओ और ध्यान करने बैठ जाओ। चोर खुश होकर चला गया।
चार दिन बाद वापस आया और बोला, आपने मुझे बुरा फंसाया। अब न मैं चोरी कर सकता हूं और न ध्यान। चोरी करने जाऊं , तो मेरी अंतरात्मा कचोटती है। आजकल अंतरात्मा वगैरह के बारे में ज्यादा चर्चा नहीं होती। कानों में लगे ईयर फोन अंतरात्मा को कहां सुनने देंगे? वैसे अंतरात्मा की कोई आवाज नहीं होती, उसका कोई स्वर नहीं है, वह भीतर से होने वाली प्रतीति है। जब आप गहरे मौन में डूबते हैं, तब स्वयं से जुड़ जाते हैं, उस भीतरी आकाश में सच के अलावा कुछ नहीं होता। उसे आवाज इसलिए कहते हैं, क्योंकि नि:शब्द मौन भी शब्द का ही रूप है। शब्द एक ध्वनि है। वह जब गहरे उतरती है, तो सिर्फ तरंग रह जाती है। इस स्थिति को उपनिषद् में पश्यंती कहा गया है। abhar hindustan...
Sunday, 30 June 2019
वर्तमान में गांधी और अंबेडकर की प्रसंगिकता
हाल ही में रिलीज हुई फिल्म आर्टिकल 15 के संबंध में फेसबुक और सोशल मीडिया पर काफी कुछ टिप्पणियां देखने को मिली वर्तमान में यह मुद्दा अत्यंत चर्चा के विषय बने हुए हैं आरक्षण जिसमें मुख्य मुद्दा है
यहां पर इस बात को समझना होगा की प्राचीन काल में आरक्षण नहीं था लेकिन भेदभाव उस समय भी होता था आज आरक्षण है तब भी भेदभाव होता है क्योंकि समस्या आरक्षण में नहीं जातियों में है और जातियों केवल हिंदू धर्म में है
यानि मूल समस्या धर्म है.
आज के समय में अनुसूचित जाति जनजाति ओबीसी सिख और जैन भूतपूर्व सैनिक शरणार्थी महिलाओं तथा राज्य आंदोलनकारी महिलाओं. सैनिकों और यहां तक कि आर्थिक रूप से पिछड़े सवर्णो को भी आरक्षण प्राप्त है... आरक्षण और जाति के नाम पर भेदभाव केवल हिंदू धर्म के अंतर्गत अनुसूचित जाति के साथ ही क्यों होता है...
गांधीजी और बाबा साहब भीमराव अंबेडकर दोनों के द्वारा अस्पृश्यता उन्मूलन के लिए कार्य किया गया किंतु दोनों के विचारों में अंतर था गांधीजी का अपना कोई दर्शन तो नहीं था किंतु उनके नैतिक मूल्य थे उनके द्वारा आंदोलन की कमान उच्च वर्णों तक सीमित थी किंतु उच्च वर्ण अपने निजी स्वार्थों का त्याग करना नहीं चाहते थे
लेकिन दोनों के बीच जिस तरह का विरोध पनपा, उसके लिए ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन और उसके खिलाफ चल रहे स्वाधीनता संघर्ष की पृष्ठभूमि ही मुख्यतः जिम्मेदार थी। जहां गांधी का प्रथम लक्ष्य अंग्रेजों की गुलामी से मुक्ति पाना और भारत को एक स्वाधीन राष्ट्र बनाना था, वहीं आंबेडकर का प्रथम लक्ष्य दलितों को सवर्ण हिंदुओं की गुलामी से मुक्ति दिलाना और अपने पैरों पर खड़ा करना था। दोनों के बीच पहली बार कटुता लंदन में हुए गोलमेज सम्मेलन के समय प्रकट हुई। गांधी भारतीय स्वाधीनता आंदोलन के शीर्ष नेता थे लेकिन इस सम्मेलन में आमंत्रित 56 प्रतिनिधियों के बीच उनकी हैसियत और आवाज केवल एक प्रतिनिधि की थी। आंबेडकर ब्रिटिश सरकार द्वारा नामजद प्रतिनिधि थे। इस सम्मेलन में उन्होंने स्पष्ट शब्दों में कहा कि वे जिन दलित वर्गों का प्रतिनिधित्व करते हैं, उन्हें ब्रिटिश शासन की समाप्ति की कोई जल्दी नहीं है और न उन्होंने ब्रिटिश सरकार से भारतीयों को सत्ता हस्तांतरित किए जाने के लिए कोई आंदोलन ही छेड़ा है। यही नहीं, उन्हें यह मानने में भी आपत्ति थी कि गांधी राष्ट्रीय आंदोलन के सर्वमान्य नेता के रूप में सभी भारतीयों का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं। जिन्ना की तरह ही आंबेडकर भी गांधी को केवल हिंदू, बल्कि सवर्ण हिंदू नेता ही मानते थे। जिन्ना की तरह ही वह भी गांधी को हमेशा मिस्टर गांधी कहते रहे।
आज 2019 में जब देश गांधी की डेढ़सौवीं जयंती मना रहे हैं, तब यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि दलित समस्या पर आज गांधी का दृष्टिकोण अधिक प्रासंगिक है या आंबेडकर का? मेरा निजी विचार यह है कि इन दोनों परस्पर विरोधी दृष्टिकोणों को आज मिलाकर चलने की जरूरत है। गांधी की यह मान्यता कि मनुष्य के भीतर बदलाव लाए बिना समाज में बदलाव नहीं लाया जा सकता, आज सही सिद्ध हो रही है। संविधान में प्रदत्त अधिकारों के बावजूद आज भी देश में दलितों की हालत बेहद खराब है, क्योंकि सवर्णों का उनके प्रति हिकारत का रवैया नहीं बदला है और आज भी दलित दूल्हे के घोड़ी पर चढ़कर बारात निकालने पर गांव में हिंसा हो जाती है। यह भी सच है कि दलितों को कानून का संरक्षण दिया जाना अनिवार्य है, वरना उन पर अत्याचार करने वालों को मनमानी करने से रोकने के लिए कानून का सहारा भी नहीं रहेगा। दलितों के खिलाफ उत्पीड़न संबंधी कानून के प्रावधानों को नर्म बनाने पर छिड़ी बहस इसका ताजातरीन उदाहरण है। आंबेडकरवाद और गांधीवाद आज एक-दूसरे के पूरक अधिक हैं, विरोधी कम।
लगता है कि यह आंबेडकर का युग है, गांधी का नहीं क्योंकि अधिकांश दलित आंदोलनकारी गांधी के विरोधी और आंबेडकर के अनुयायी हैं। लेकिन इसी के साथ यह प्रश्न भी उठता है कि यदि गांधीवादी विचारधारा दलितों का वास्तविक उत्थान नहीं कर पाई तो क्या आंबेडकरवादी विचारधारा के आधार पर हुए आंदोलन इस काम में सफलता प्राप्त कर पाए हैं? क्या अब समय नहीं आ गया कि गांधी और आंबेडकर के विचारों के बीच साम्य और संतुलन बिठाने की कोशिश की जाए, भले ही दोनों महापुरुष अपने जीवनकाल में अधिकांशतः असहमत ही रहे हों? जब हिंदुत्ववादी संघ इन दोनों के विचारों के साथ समरसता पैदा करना चाहता है, भले ही दिखावे के लिए ही सही तो फिर गांधीवादी और आंबेडकरवादी एक-दूसरे को समझने और साथ-साथ चलने के लिए राजी क्यों नहीं हो सकते?
गांधी और भीमराव आंबेडकर के आदर्शों में कोई अंतर था? क्या दोनों ही दलितों के उत्थान, जाति पर आधारित भेदभाव की समाप्ति और मनुष्य की समानता के लक्ष्यों के प्रति ईमानदारी के साथ समर्पित नहीं थे? ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन के खिलाफ चले स्वाधीनता आंदोलन के विशिष्ट संदर्भ में उनके बीच उभरे मतभेद क्या आज के बदले हुए संदर्भ में भी उतने ही प्रासंगिक और महत्वपूर्ण हैं जितने वे आज से आठ-नौ दशक पहले थे? संभवतः नहीं। वह मेरे नीचे विचार है आप मुझे अपने सुझाव या विचार मेरे फेसबुक पेज पर दे सकते हैं कृपया नकारात्मक टिप्पणी ना करें धन्यवाद...
उर्दू गजल शायरी का इतिहास विकास
वैसे तो आजकल के दौर में फेसबुक व्हाट्सएप के कारण बहुत से नए कवि इजाद हो गए हैं जिनमें से मैं भी एक प्रमुख हूं.. मेरे द्वारा पसंद आने पर अपने फोटो के साथ कैप्शन लिख दिया जाता है लोगों के द्वारा व्यक्तिगत टिप्पणी भी की जाती है व इसका कारण पूछा जाता है यहां पर यह बताना समीचीन होगा कि उसका मेरे निजी जीवन से कोई भी ताल्लुक नहीं है यदि किसी शायरी का इससे संबंध पाया जाता है तो वह मात्र एक सहयोग कहा जाएगा..
इसी क्रम में ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में कुछ बिंदुओं को आपके साथ भी साझा कर रहा हूं..
शेरो शायरी अधिकतर अरबी फारसी शब्दों के साथ उन्नति के शिखर पर पहुंची इसमें उर्दू जो कोई स्वतंत्र भाषा नहीं है फिर भी यह भाषा मानी जाती है क्योंकि इसका जन्म अरबी व फारसी लिपि के योग से हुआ है
भारतीय परिप्रेक्ष्य में मध्यकालीन भारत मुस्लिम साम्राज्य के दौरान इस को प्रोत्साहन मिला तब हिंदुओं के लिए भी इसकी शिक्षा प्राप्त करना आवश्यक हो गया था हिंदू मुस्लिम दोनों कवियों और लेखकों ने अपनी रचनाओं में इस भाषा का प्रयोग किया मध्यकालीन भारत में जनता व लोगों की भावनाओं से संबंधित शेरो शायरिया लिखने का दौर शुरू हुआ जो जो अंतर्मन की गहराइयों से लिखी जाती थी उस समय यह प्रसिद्धि प्राप्त करती चली गई..
भक्ति आंदोलन के क्रम में सूफी परंपराओं के साथ इस्लामी जगत में भी इस क्षेत्र में अपार उन्नति हुई तथा शेरो शायरी कव्वाली के साथ अपनी अभिव्यक्ति प्रस्तुत करने का दौर शुरू हुआ....
फारसी से ग़ज़ल उर्दू में आई। उर्दू का पहला शायर जिसका काव्य-संकलन (दीवान) प्रकाशित हुआ हैं, वह हैं मोहम्मद क़ुली क़ुतुबशाह। जो दक्कन के बादशाह थे और आपकी शायरी में फारसी के अलावा उर्दू और उस वक़्त की दक्कनी बोली भी शामिल थी।
कुली कुतुबशाह के बाद के शायर हैं ग़व्वासी, वज़ही, बहरी और कई अन्य। इस दौर से गुज़रती ग़ज़ल वली दकनी तक आ पहुंची और उस समय तक ग़ज़ल पर छाई हुई दकनी छाप काफी कम हो गई। वली ने सर्वप्रथम ग़ज़ल को अच्छी शायरी का दर्जा दिया और फारसी शायरी के बराबर ला खडा किया।
दूसरा दौर-
इस दौर के सब से मशहूर शायर हैं ‘मीर’ और ‘सौदा’। इस दौर को उर्दू शायरी का ‘सुवर्णकाल’ कहा जाता हैं। इस दौर के अन्य शायरों में मीर ‘दर्द’ और मीर ग़ुलाम हसन का नाम भी काफी मशहूर था। इस ज़माने में उच्च कोंटि की ग़ज़लें लिखी गईं जिसमें ग़ज़ल की भाषा, ग़ज़ल का उद्देश्य और उसकी नाज़ुकी या नज़ाकतों को संवारा गया। मीर की शायरी में दर्द कुछ इस तरह उभरा कि उसे दिल और दिल्ली का मर्सिया कहा जाने लगा।
देख तो दिल कि जां से उठाता हैं।
ये धुआं सा कहां से उठता हैं। ।
दर्द के साथ साथ मीर की शायरी में नज़ाकत भी तारीफ के क़ाबिल थी।
इस दौर की शायरी की एक और महत्वपूर्ण बात यह हैं कि इस ज़माने के अधिकांश शायर सूफी पंथ के थे। इसलिये इस दौर की ग़ज़लों में सूफी पंथ के पवित्र विचारों का विवरण भी मिलता हैं।
वक़्त ने करवट बदली और दिल्ली की सल्तनत का चिराग टिमटिमाने लगा। फैज़ाबाद और लखनऊ में, जहां दौलत की भरमार थी, शायर दिल्ली और दूसरी जगाहों को छोडकर, इकट्ठा होने लगे
शायरों के साथ एक बदनसीब शायर भी था जिसने ज़िंदगी के अंतिम क्षणों में वतन से दूर किसी जेल की अंधेरी कोठरी में लडखडाती ज़बान से कहा था-
कितना हैं बदनसीब ‘ज़फर’ दफ्न के लिये।
दो गज़ ज़मीन भी न मिली कू-ए-यार में। ।
-बहादुरशाह ज़फर
१८५७ में दिल्ली उजडी, लखनऊ बर्बाद हुआ। ऐशो-आराम और शांति के दिन ख़त्म हुए। शायर अब दिल्ली और लखनऊ छोड रामपूर, भोपाल, मटियाब्रिज और हैद्राबाद पहुंच वहां के दरबारों की शान बढाने लगे। अब उर्दू शायरी में दिल्ली और लखनऊ का मिला-जुला अंदाज़ नज़र आने लगा। इस दौर के दो मशहूर शायर ‘दाग’ और ‘अमीर मीनाई’ हैं।
यह वक़्त अंग्रेज़ी हुकूमत की गिरफ्त का होते हुए भी भारतीय इंसान आज़ादी के लिये छटपटा रहा था और कभी कभी बग़ावत भी कर बैठता। जन-जीवन जागृत हो रहा था। आज़ादी के सपने देखे जा रहे थे और लेखनी तलवार बन रही थी। अब ग़ज़लों में चारित्र्य और तत्वज्ञान की बातें उभरने लगीं। राष्ट्रीयता यानी क़ौमी भावनाओं पर कविताएं लिखी गई और अंग्रेज़ी हुकूमत एवं उसकी संस्कृती पर ढके छुपे लेकिन तीखे व्यंगात्मक शेर भी लिखे जाने लगे। अब ग़ज़ल में इश्क़ का केंद्र खुदा या माशुक न होकर राष्ट्र और मातृभूमि हुई। इसका मुख्य उद्देश्य अब आज़ादी हो गया। ‘हाली’, ‘अकबर इलाहबादी’ ‘चकबिस्त’ और ‘इक़बाल’ इस युग के ज्वलंत शायर हैं।
सारे जहां से अच्छा हिंदोस्तां हमारा।
हम बुलबुलें हैं इसके, ये गुलिस्तां हमारा। ।
‘इक़बाल’ की यह नज़्म हर भारतीय की ज़बान पर थी और आज भी हैं। ‘अक़बर’ के व्यंग भी इतने ही मशहूर हैं। लेकिन एक बात का उल्लेख करना यहां ज़रूरी हैं कि इन शायरों ने ग़ज़लें कम और नज़्में अथवा कविताएं ज़्यादा लिखीं। और यथार्थ में ग़ज़ल को सब से पहला धक्का यहीं लगा। कुछ लोगों ने तो यह सोचा कि ग़ज़ल ख़त्म की जा रही हैं।
लेकिन ग़ज़ल की ख़ुशक़िस्मती कहिये कि उसकी डगमगाती नाव को ‘हसरत’, ‘जिगर’, ‘फनी’, ‘असग़र गोंडवी’ जैसे महान शायरों ने संभाला, उसे नई औऱ अच्छी दिशा दिखलाई, दोबारा ज़िंदा किया और उसे फिर से मक़बूल किया। ‘जिगर’ और ‘हसरत’ ने महबूब को काल्पनिक दुनिया से निकाल कर चलती फिरती दुनिया में ला खडा किया। पुरानी शायरी में महबूब सिर्फ महबूब था, कभी आशिक़ न बना था। ‘हसरत’ और ‘जिगर’ ने महबूब को महबूब तो माना साथ ही उसे एक सर्वांग संपूर्ण इंसान भी बना दिया जिसने दूसरों को चाहा, प्यार किया और दूसरों से भी यही अपेक्षा की।
दोपहर की धूप में मेरे बुलाने के लिये।
वो तेरा कोठे पे नंगे पांव आना याद है। ।
-हसरत
ग़ज़ल का यह रूप लोगों को बहुत भाया। ग़ज़ल अब सही अर्थ में जवान हुई।
फैज़ अहमद फैज़ का ज़िक्र अलग से करना अनिवार्य हैं। यह पहले शायर हैं जिन्होंने ग़ज़ल में राजनीति लाई औऱ साथ साथ ज़िंदगी की सर्वसाधारण उलझनों और हक़ीक़तों को बडी ख़ूबी और सफाई से पेश किया।
मता-ए-लौहो कलम छिन गई तो क्या ग़म हैं।
कि ख़ूने दिल में डुबो ली हैं उंगलियां मैंने। ।
जेल की सीखचों के पीछे क़ैद ‘फैज़’ के आज़द क़लम का यह नमूना ऊपर लिखी हुई बात को पूर्णत: सिद्ध करता हैं।
शक्ल धुंधली सी हैं, शीशे में निखर जायेगी।
मेरे एहसास की गर्मी से संवर जायेगी।।
आज वो काली घटाओं पे हैं नाज़ां लेकिन।
चांद सी रोशनी बालों में उतर जायेगी। ।
– ज़रीना सानी
फिलहाल यह ग़ज़ले प्रारंभिक एवं प्रायोगिक अवस्था में हैं। वर्तमान में युवाओं को मोटिवेशनल के साथ साथ युवा दुष्यंत कुमार व मिलने वह बिछड़ने से संबंधित अंदाज पसंद है जिन्हें वह अपने दूरभाष सचल यंत्र के माध्यम से व्हाट्सएप स्टेटस में लगाते हैं.....
इसी क्रम में ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में कुछ बिंदुओं को आपके साथ भी साझा कर रहा हूं..
शेरो शायरी अधिकतर अरबी फारसी शब्दों के साथ उन्नति के शिखर पर पहुंची इसमें उर्दू जो कोई स्वतंत्र भाषा नहीं है फिर भी यह भाषा मानी जाती है क्योंकि इसका जन्म अरबी व फारसी लिपि के योग से हुआ है
भारतीय परिप्रेक्ष्य में मध्यकालीन भारत मुस्लिम साम्राज्य के दौरान इस को प्रोत्साहन मिला तब हिंदुओं के लिए भी इसकी शिक्षा प्राप्त करना आवश्यक हो गया था हिंदू मुस्लिम दोनों कवियों और लेखकों ने अपनी रचनाओं में इस भाषा का प्रयोग किया मध्यकालीन भारत में जनता व लोगों की भावनाओं से संबंधित शेरो शायरिया लिखने का दौर शुरू हुआ जो जो अंतर्मन की गहराइयों से लिखी जाती थी उस समय यह प्रसिद्धि प्राप्त करती चली गई..
भक्ति आंदोलन के क्रम में सूफी परंपराओं के साथ इस्लामी जगत में भी इस क्षेत्र में अपार उन्नति हुई तथा शेरो शायरी कव्वाली के साथ अपनी अभिव्यक्ति प्रस्तुत करने का दौर शुरू हुआ....
फारसी से ग़ज़ल उर्दू में आई। उर्दू का पहला शायर जिसका काव्य-संकलन (दीवान) प्रकाशित हुआ हैं, वह हैं मोहम्मद क़ुली क़ुतुबशाह। जो दक्कन के बादशाह थे और आपकी शायरी में फारसी के अलावा उर्दू और उस वक़्त की दक्कनी बोली भी शामिल थी।
कुली कुतुबशाह के बाद के शायर हैं ग़व्वासी, वज़ही, बहरी और कई अन्य। इस दौर से गुज़रती ग़ज़ल वली दकनी तक आ पहुंची और उस समय तक ग़ज़ल पर छाई हुई दकनी छाप काफी कम हो गई। वली ने सर्वप्रथम ग़ज़ल को अच्छी शायरी का दर्जा दिया और फारसी शायरी के बराबर ला खडा किया।
दूसरा दौर-
इस दौर के सब से मशहूर शायर हैं ‘मीर’ और ‘सौदा’। इस दौर को उर्दू शायरी का ‘सुवर्णकाल’ कहा जाता हैं। इस दौर के अन्य शायरों में मीर ‘दर्द’ और मीर ग़ुलाम हसन का नाम भी काफी मशहूर था। इस ज़माने में उच्च कोंटि की ग़ज़लें लिखी गईं जिसमें ग़ज़ल की भाषा, ग़ज़ल का उद्देश्य और उसकी नाज़ुकी या नज़ाकतों को संवारा गया। मीर की शायरी में दर्द कुछ इस तरह उभरा कि उसे दिल और दिल्ली का मर्सिया कहा जाने लगा।
देख तो दिल कि जां से उठाता हैं।
ये धुआं सा कहां से उठता हैं। ।
दर्द के साथ साथ मीर की शायरी में नज़ाकत भी तारीफ के क़ाबिल थी।
इस दौर की शायरी की एक और महत्वपूर्ण बात यह हैं कि इस ज़माने के अधिकांश शायर सूफी पंथ के थे। इसलिये इस दौर की ग़ज़लों में सूफी पंथ के पवित्र विचारों का विवरण भी मिलता हैं।
वक़्त ने करवट बदली और दिल्ली की सल्तनत का चिराग टिमटिमाने लगा। फैज़ाबाद और लखनऊ में, जहां दौलत की भरमार थी, शायर दिल्ली और दूसरी जगाहों को छोडकर, इकट्ठा होने लगे
शायरों के साथ एक बदनसीब शायर भी था जिसने ज़िंदगी के अंतिम क्षणों में वतन से दूर किसी जेल की अंधेरी कोठरी में लडखडाती ज़बान से कहा था-
कितना हैं बदनसीब ‘ज़फर’ दफ्न के लिये।
दो गज़ ज़मीन भी न मिली कू-ए-यार में। ।
-बहादुरशाह ज़फर
१८५७ में दिल्ली उजडी, लखनऊ बर्बाद हुआ। ऐशो-आराम और शांति के दिन ख़त्म हुए। शायर अब दिल्ली और लखनऊ छोड रामपूर, भोपाल, मटियाब्रिज और हैद्राबाद पहुंच वहां के दरबारों की शान बढाने लगे। अब उर्दू शायरी में दिल्ली और लखनऊ का मिला-जुला अंदाज़ नज़र आने लगा। इस दौर के दो मशहूर शायर ‘दाग’ और ‘अमीर मीनाई’ हैं।
यह वक़्त अंग्रेज़ी हुकूमत की गिरफ्त का होते हुए भी भारतीय इंसान आज़ादी के लिये छटपटा रहा था और कभी कभी बग़ावत भी कर बैठता। जन-जीवन जागृत हो रहा था। आज़ादी के सपने देखे जा रहे थे और लेखनी तलवार बन रही थी। अब ग़ज़लों में चारित्र्य और तत्वज्ञान की बातें उभरने लगीं। राष्ट्रीयता यानी क़ौमी भावनाओं पर कविताएं लिखी गई और अंग्रेज़ी हुकूमत एवं उसकी संस्कृती पर ढके छुपे लेकिन तीखे व्यंगात्मक शेर भी लिखे जाने लगे। अब ग़ज़ल में इश्क़ का केंद्र खुदा या माशुक न होकर राष्ट्र और मातृभूमि हुई। इसका मुख्य उद्देश्य अब आज़ादी हो गया। ‘हाली’, ‘अकबर इलाहबादी’ ‘चकबिस्त’ और ‘इक़बाल’ इस युग के ज्वलंत शायर हैं।
सारे जहां से अच्छा हिंदोस्तां हमारा।
हम बुलबुलें हैं इसके, ये गुलिस्तां हमारा। ।
‘इक़बाल’ की यह नज़्म हर भारतीय की ज़बान पर थी और आज भी हैं। ‘अक़बर’ के व्यंग भी इतने ही मशहूर हैं। लेकिन एक बात का उल्लेख करना यहां ज़रूरी हैं कि इन शायरों ने ग़ज़लें कम और नज़्में अथवा कविताएं ज़्यादा लिखीं। और यथार्थ में ग़ज़ल को सब से पहला धक्का यहीं लगा। कुछ लोगों ने तो यह सोचा कि ग़ज़ल ख़त्म की जा रही हैं।
लेकिन ग़ज़ल की ख़ुशक़िस्मती कहिये कि उसकी डगमगाती नाव को ‘हसरत’, ‘जिगर’, ‘फनी’, ‘असग़र गोंडवी’ जैसे महान शायरों ने संभाला, उसे नई औऱ अच्छी दिशा दिखलाई, दोबारा ज़िंदा किया और उसे फिर से मक़बूल किया। ‘जिगर’ और ‘हसरत’ ने महबूब को काल्पनिक दुनिया से निकाल कर चलती फिरती दुनिया में ला खडा किया। पुरानी शायरी में महबूब सिर्फ महबूब था, कभी आशिक़ न बना था। ‘हसरत’ और ‘जिगर’ ने महबूब को महबूब तो माना साथ ही उसे एक सर्वांग संपूर्ण इंसान भी बना दिया जिसने दूसरों को चाहा, प्यार किया और दूसरों से भी यही अपेक्षा की।
दोपहर की धूप में मेरे बुलाने के लिये।
वो तेरा कोठे पे नंगे पांव आना याद है। ।
-हसरत
ग़ज़ल का यह रूप लोगों को बहुत भाया। ग़ज़ल अब सही अर्थ में जवान हुई।
फैज़ अहमद फैज़ का ज़िक्र अलग से करना अनिवार्य हैं। यह पहले शायर हैं जिन्होंने ग़ज़ल में राजनीति लाई औऱ साथ साथ ज़िंदगी की सर्वसाधारण उलझनों और हक़ीक़तों को बडी ख़ूबी और सफाई से पेश किया।
मता-ए-लौहो कलम छिन गई तो क्या ग़म हैं।
कि ख़ूने दिल में डुबो ली हैं उंगलियां मैंने। ।
जेल की सीखचों के पीछे क़ैद ‘फैज़’ के आज़द क़लम का यह नमूना ऊपर लिखी हुई बात को पूर्णत: सिद्ध करता हैं।
शक्ल धुंधली सी हैं, शीशे में निखर जायेगी।
मेरे एहसास की गर्मी से संवर जायेगी।।
आज वो काली घटाओं पे हैं नाज़ां लेकिन।
चांद सी रोशनी बालों में उतर जायेगी। ।
– ज़रीना सानी
फिलहाल यह ग़ज़ले प्रारंभिक एवं प्रायोगिक अवस्था में हैं। वर्तमान में युवाओं को मोटिवेशनल के साथ साथ युवा दुष्यंत कुमार व मिलने वह बिछड़ने से संबंधित अंदाज पसंद है जिन्हें वह अपने दूरभाष सचल यंत्र के माध्यम से व्हाट्सएप स्टेटस में लगाते हैं.....
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