Sunday, 30 June 2019

वर्तमान में गांधी और अंबेडकर की प्रसंगिकता

हाल ही में रिलीज हुई फिल्म आर्टिकल 15 के संबंध में फेसबुक और सोशल मीडिया पर काफी कुछ टिप्पणियां देखने को मिली वर्तमान में यह मुद्दा अत्यंत चर्चा के विषय बने हुए हैं आरक्षण जिसमें मुख्य मुद्दा है यहां पर इस बात को समझना होगा की प्राचीन काल में आरक्षण नहीं था लेकिन भेदभाव उस समय भी होता था आज आरक्षण है तब भी भेदभाव होता है क्योंकि समस्या आरक्षण में नहीं जातियों में है और जातियों केवल हिंदू धर्म में है यानि मूल समस्या धर्म है. आज के समय में अनुसूचित जाति जनजाति ओबीसी सिख और जैन भूतपूर्व सैनिक शरणार्थी महिलाओं तथा राज्य आंदोलनकारी महिलाओं. सैनिकों और यहां तक कि आर्थिक रूप से पिछड़े सवर्णो को भी आरक्षण प्राप्त है... आरक्षण और जाति के नाम पर भेदभाव केवल हिंदू धर्म के अंतर्गत अनुसूचित जाति के साथ ही क्यों होता है... गांधीजी और बाबा साहब भीमराव अंबेडकर दोनों के द्वारा अस्पृश्यता उन्मूलन के लिए कार्य किया गया किंतु दोनों के विचारों में अंतर था गांधीजी का अपना कोई दर्शन तो नहीं था किंतु उनके नैतिक मूल्य थे उनके द्वारा आंदोलन की कमान उच्च वर्णों तक सीमित थी किंतु उच्च वर्ण अपने निजी स्वार्थों का त्याग करना नहीं चाहते थे लेकिन दोनों के बीच जिस तरह का विरोध पनपा, उसके लिए ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन और उसके खिलाफ चल रहे स्वाधीनता संघर्ष की पृष्ठभूमि ही मुख्यतः जिम्मेदार थी। जहां गांधी का प्रथम लक्ष्य अंग्रेजों की गुलामी से मुक्ति पाना और भारत को एक स्वाधीन राष्ट्र बनाना था, वहीं आंबेडकर का प्रथम लक्ष्य दलितों को सवर्ण हिंदुओं की गुलामी से मुक्ति दिलाना और अपने पैरों पर खड़ा करना था। दोनों के बीच पहली बार कटुता लंदन में हुए गोलमेज सम्मेलन के समय प्रकट हुई। गांधी भारतीय स्वाधीनता आंदोलन के शीर्ष नेता थे लेकिन इस सम्मेलन में आमंत्रित 56 प्रतिनिधियों के बीच उनकी हैसियत और आवाज केवल एक प्रतिनिधि की थी। आंबेडकर ब्रिटिश सरकार द्वारा नामजद प्रतिनिधि थे। इस सम्मेलन में उन्होंने स्पष्ट शब्दों में कहा कि वे जिन दलित वर्गों का प्रतिनिधित्व करते हैं, उन्हें ब्रिटिश शासन की समाप्ति की कोई जल्दी नहीं है और न उन्होंने ब्रिटिश सरकार से भारतीयों को सत्ता हस्तांतरित किए जाने के लिए कोई आंदोलन ही छेड़ा है। यही नहीं, उन्हें यह मानने में भी आपत्ति थी कि गांधी राष्ट्रीय आंदोलन के सर्वमान्य नेता के रूप में सभी भारतीयों का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं। जिन्ना की तरह ही आंबेडकर भी गांधी को केवल हिंदू, बल्कि सवर्ण हिंदू नेता ही मानते थे। जिन्ना की तरह ही वह भी गांधी को हमेशा मिस्टर गांधी कहते रहे। आज 2019 में जब देश गांधी की डेढ़सौवीं जयंती मना रहे हैं, तब यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि दलित समस्या पर आज गांधी का दृष्टिकोण अधिक प्रासंगिक है या आंबेडकर का? मेरा निजी विचार यह है कि इन दोनों परस्पर विरोधी दृष्टिकोणों को आज मिलाकर चलने की जरूरत है। गांधी की यह मान्यता कि मनुष्य के भीतर बदलाव लाए बिना समाज में बदलाव नहीं लाया जा सकता, आज सही सिद्ध हो रही है। संविधान में प्रदत्त अधिकारों के बावजूद आज भी देश में दलितों की हालत बेहद खराब है, क्योंकि सवर्णों का उनके प्रति हिकारत का रवैया नहीं बदला है और आज भी दलित दूल्हे के घोड़ी पर चढ़कर बारात निकालने पर गांव में हिंसा हो जाती है। यह भी सच है कि दलितों को कानून का संरक्षण दिया जाना अनिवार्य है, वरना उन पर अत्याचार करने वालों को मनमानी करने से रोकने के लिए कानून का सहारा भी नहीं रहेगा। दलितों के खिलाफ उत्पीड़न संबंधी कानून के प्रावधानों को नर्म बनाने पर छिड़ी बहस इसका ताजातरीन उदाहरण है। आंबेडकरवाद और गांधीवाद आज एक-दूसरे के पूरक अधिक हैं, विरोधी कम। लगता है कि यह आंबेडकर का युग है, गांधी का नहीं क्योंकि अधिकांश दलित आंदोलनकारी गांधी के विरोधी और आंबेडकर के अनुयायी हैं। लेकिन इसी के साथ यह प्रश्न भी उठता है कि यदि गांधीवादी विचारधारा दलितों का वास्तविक उत्थान नहीं कर पाई तो क्या आंबेडकरवादी विचारधारा के आधार पर हुए आंदोलन इस काम में सफलता प्राप्त कर पाए हैं? क्या अब समय नहीं आ गया कि गांधी और आंबेडकर के विचारों के बीच साम्य और संतुलन बिठाने की कोशिश की जाए, भले ही दोनों महापुरुष अपने जीवनकाल में अधिकांशतः असहमत ही रहे हों? जब हिंदुत्ववादी संघ इन दोनों के विचारों के साथ समरसता पैदा करना चाहता है, भले ही दिखावे के लिए ही सही तो फिर गांधीवादी और आंबेडकरवादी एक-दूसरे को समझने और साथ-साथ चलने के लिए राजी क्यों नहीं हो सकते? गांधी और भीमराव आंबेडकर के आदर्शों में कोई अंतर था? क्या दोनों ही दलितों के उत्थान, जाति पर आधारित भेदभाव की समाप्ति और मनुष्य की समानता के लक्ष्यों के प्रति ईमानदारी के साथ समर्पित नहीं थे? ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन के खिलाफ चले स्वाधीनता आंदोलन के विशिष्ट संदर्भ में उनके बीच उभरे मतभेद क्या आज के बदले हुए संदर्भ में भी उतने ही प्रासंगिक और महत्वपूर्ण हैं जितने वे आज से आठ-नौ दशक पहले थे? संभवतः नहीं। वह मेरे नीचे विचार है आप मुझे अपने सुझाव या विचार मेरे फेसबुक पेज पर दे सकते हैं कृपया नकारात्मक टिप्पणी ना करें धन्यवाद...

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thank you i will...