सिंधु घाटी सभ्यता(३३००-१७०० ई.पू.)[1]
विश्व की प्राचीन नदी घाटी सभ्यताओं में से एक प्रमुख सभ्यता थी। यह
हड़प्पा सभ्यता और सिंधु-सरस्वती सभ्यता के नाम से भी जानी जाती है। इसका
विकास सिंधु और घघ्घर/हकड़ा (प्राचीन सरस्वती) के किनारे हुआ।[2] मोहनजोदड़ो, कालीबंगा, लोथल, धोलावीरा, राखीगढ़ी और हड़प्पा इसके प्रमुख केन्द्र थे।दिसम्बर २०१४ में भिर्दाना
को अबतक का खोजा गया सबसे प्राचीन नगर माना गया सिंधु घाटी सभ्यता का।
ब्रिटिश काल में हुई खुदाइयों के आधार पर पुरातत्ववेत्ता और इतिहासकारों का
अनुमान है कि यह अत्यंत विकसित सभ्यता थी और ये शहर अनेक बार बसे और उजड़े
हैं। चार्ल्स मैसेन ने पहली बार इस पुरानी सभ्यता को खोजा। कनिंघम ने १८७२ में इस सभ्यता के बारे में सर्वेक्षण किया। फ्लीट ने इस पुरानी सभ्यता के बारे मे एक लेख लिखा। १९२१ में दयाराम साहनी
ने हड़प्पा का उत्खनन किया। इस प्रकार इस सभ्यता का नाम हड़प्पा सभ्यता
रखा गया। यह सभ्यता सिन्धु नदी घाटी मे फैली हुई थी इसलिए इसका नाम सिन्धु
घाटी सभ्यता रखा गया। प्रथम बार नगरों के उदय के कारण इसे प्रथम नगरीकरण भी
कहा जाता है प्रथम बार कांस्य के प्रयोग के कारण इसे कांस्य सभ्यता
भी कहा जाता है। सिन्धु घाटी सभ्यता के १४०० केन्द्रों को खोजा जा सका है
जिसमें से ९२५ केन्द्र भारत में है। ८० प्रतिशत स्थल सरस्वती नदी और उसकी
सहायक नदियों के आस-पास है। अभी तक कुल खोजों में से ३ प्रतिशत स्थलों का
ही उत्खनन हो पाया है।सिन्धु घाटी सभ्यता का क्षेत्र अत्यन्त व्यापक था। आरम्भ में हड़प्पा और मोहनजोदड़ो
की खुदाई से इस सभ्यता के प्रमाण मिले हैं। अतः विद्वानों ने इसे सिन्धु
घाटी की सभ्यता का नाम दिया, क्योंकि यह क्षेत्र सिन्धु और उसकी सहायक
नदियों के क्षेत्र में आते हैं, पर बाद में रोपड़, लोथल, कालीबंगा,
वनमाली, रंगापुर आदि क्षेत्रों में भी इस सभ्यता के अवशेष मिले जो सिन्धु
और उसकी सहायक नदियों के क्षेत्र से बाहर थे। अतः कई इतिहासकार इस सभ्यता
का प्रमुख केन्द्र हड़प्पा होने के कारण इस सभ्यता को "हड़प्पा सभ्यता" नाम
देना अधिक उचित मानते हैं। भारतीय पुरातत्व विभाग के महानिदेशक सर जॉन
मार्शल ने 1924 में सिन्धु सभ्यता के बारे में तीन महत्त्वपूर्ण ग्र थ
लिखे।
समय (बी.सी.ई.) | काल | युग |
---|---|---|
7570-3300 | पूर्व हड़प्पा ( नवपाषाण युग,ताम्र पाषाण युग) | |
7570–6200 BCE | भिर्दाना | प्रारंभिक खाद्य उत्पादक युग |
7000–5500 BCE | मेहरगढ़I (पूर्व मृद्भाण्ड नवपाषाण काल) | |
5500-3300 | मेहरगढ़ II-VI (मृद्भाण्ड नवपाषाण काल) | क्षेत्रीयकरण युग |
3300-2600 | प्रारम्भिक हड़प्पा (आरंभिक कांस्य युग ) | |
3300-2800 | हड़प्पा 1 (Ravi Phase) | |
2800-2600 | हड़प्पा 2 (Kot Diji Phase, Nausharo I, मेहरगढ़ VII) | |
2600-1900 | परिपक्व हड़प्पा (मध्य कांस्य युग ) | एकीकरण युग |
2600-2450 | हड़प्पा 3A (Nausharo II) | |
2450-2200 | हड़प्पा 3B | |
2200-1900 | हड़प्पा 3C | |
1900-1300 | उत्तर हड़प्पा (समाधी एच, उत्तरी कांस्य युग) | प्रवास युग |
1900-1700 | हड़प्पा 4 | |
1700-1300 | हड़प्पा 5 |
इस सभ्यता का क्षेत्र संसार की सभी प्राचीन सभ्यताओं के क्षेत्र से अनेक गुना बड़ा और विशाल था।[3] इस परिपक्व सभ्यता के केन्द्र-स्थल पंजाब तथा सिन्ध
में था। तत्पश्चात इसका विस्तार दक्षिण और पूर्व की दिशा में हुआ। इस
प्रकार हड़प्पा संस्कृति के अन्तर्गत पंजाब, सिन्ध और बलूचिस्तान के भाग ही
नहीं, बल्कि गुजरात, राजस्थान, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के सीमान्त भाग भी थे। इसका फैलाव उत्तर में रहमानढेरी से लेकर दक्षिण में दैमाबाद (महाराष्ट्र) तक और पश्चिम में बलूचिस्तान के मकरान समुद्र तट के सुत्कागेनडोर से लेकर उत्तर पूर्व में मेरठ
और कुरुक्षेत्र तक था। प्रारंभिक विस्तार जो प्राप्त था उसमें सम्पूर्ण
क्षेत्र त्रिभुजाकार था (उत्तर मे जम्मू के माण्डा से लेकर दक्षिण में
गुजरात के भोगत्रार तक और पश्चिम मे अफगानिस्तान के सुत्कागेनडोर
से पूर्व मे उत्तर प्रदेश के मेरठ तक था और इसका क्षेत्रफल 12,99,600 वर्ग
किलोमीटर था।) इस तरह यह क्षेत्र आधुनिक पाकिस्तान से तो बड़ा है ही, प्राचीन मिस्र और मेसोपोटामिया
से भी बड़ा है। ईसा पूर्व तीसरी और दूसरी सहस्त्राब्दी में संसार भार में
किसी भी सभ्यता का क्षेत्र हड़प्पा संस्कृति से बड़ा नहीं था। अब तक भारतीय उपमहाद्वीप
में इस संस्कृति के कुल 1000 स्थलों का पता चल चुका है। इनमें से कुछ
आरंभिक अवस्था के हैं तो कुछ परिपक्व अवस्था के और कुछ उत्तरवर्ती अवस्था
के। परिपक्व अवस्था वाले कम जगह ही हैं। इनमें से आधे दर्जनों को ही नगर की
संज्ञा दी जा सकती है। इनमें से दो नगर बहुत ही महत्वपूर्ण हैं - पंजाब का
हड़प्पा तथा सिन्ध का मोहें जो दड़ो (शाब्दिक अर्थ - प्रेतों का टीला)। दोनो ही स्थल वर्तमान पाकिस्तान में हैं। दोनो एक दूसरे से 483 किमी दूर थे और सिंधु नदी द्वारा जुड़े हुए थे। तीसरा नगर मोहें जो दड़ो से 130 किमी दक्षिण में चन्हुदड़ो स्थल पर था तो चौथा नगर गुजरात के खंभात की खाड़ी के उपर लोथल नामक स्थल पर। इसके अतिरिक्त राजस्थान के उत्तरी भाग में कालीबंगा (शाब्दिक अर्थ -काले रंग की चूड़ियां) तथा हरियाणा के हिसार जिले का बनावली।
इन सभी स्थलों पर परिपक्व तथा उन्नत हड़प्पा संस्कृति के दर्शन होते हैं।
सुतकागेंडोर तथा सुरकोतड़ा के समुद्रतटीय नगरों में भी इस संस्कृति की
परिपक्व अवस्था दिखाई देती है। इन दोनों की विशेषता है एक एक नगर दुर्ग का
होना। उत्तर हड़प्पा अवस्था गुजरात के कठियावाड़ प्रायद्वीप में रंगपुर और रोजड़ी स्थलों पर भी पाई गई है। इस सभ्यता की जानकारी सबसे पहले १८२६ मे चार्ल्स मैन को प्राप्त हुई।
इस सभ्यता की सबसे विशेष बात थी यहां की विकसित नगर निर्माण योजना।
हड़प्पा तथा मोहन् जोदड़ो दोनो नगरों के अपने दुर्ग थे जहां शासक वर्ग का
परिवार रहता था। प्रत्येक नगर में दुर्ग के बाहर एक एक उससे निम्न स्तर का
शहर था जहां ईंटों के मकानों में सामान्य लोग रहते थे। इन नगर भवनों के
बारे में विशेष बात ये थी कि ये जाल की तरह विन्यस्त थे। यानि सड़के एक
दूसरे को समकोण पर काटती थीं और नगर अनेक आयताकार खंडों में विभक्त हो जाता
था। ये बात सभी सिन्धु बस्तियों पर लागू होती थीं चाहे वे छोटी हों या
बड़ी। हड़प्पा तथा मोहन् जोदड़ो के भवन बड़े होते थे। वहां के स्मारक इस
बात के प्रमाण हैं कि वहां के शासक मजदूर जुटाने और कर-संग्रह में परम कुशल
थे। ईंटों की बड़ी-बड़ी इमारत देख कर सामान्य लोगों को भी यह लगेगा कि ये
शासक कितने प्रतापी और प्रतिष्ठावान् थे।
मोहन जोदड़ो का अब तक का सबसे प्रसिद्ध स्थल है विशाल सार्वजनिक
स्नानागार, जिसका जलाशय दुर्ग के टीले में है। यह ईंटो के स्थापत्य का एक
सुन्दर उदाहरण है। यब 11.88 मीटर लंबा, 7.01 मीटर चौड़ा और 2.43 मीटर गहरा
है। दोनो सिरों पर तल तक जाने की सीढ़ियां लगी हैं। बगल में कपड़े बदलने के
कमरे हैं। स्नानागार का फर्श पकी ईंटों का बना है। पास के कमरे में एक
बड़ा सा कुंआ है जिसका पानी निकाल कर होज़ में डाला जाता था। हौज़ के कोने
में एक निर्गम (Outlet) है जिससे पानी बहकर नाले में जाता था। ऐसा माना
जाता है कि यह विशाल स्नानागार धर्मानुष्ठान सम्बंधी स्नान के लिए बना होगा
जो भारत में पारंपरिक रूप से धार्मिक कार्यों के लिए आवश्यक रहा है। मोहन
जोदड़ो की सबसे बड़ा संरचना है - अनाज रखने का कोठार, जो 45.71 मीटर लंबा
और 15.23 मीटर चौड़ा है। हड़प्पा के दुर्ग में छः कोठार मिले हैं जो ईंटों
के चबूतरे पर दो पांतों में खड़े हैं। हर एक कोठार 15.23 मी. लंबा तथा 6.09
मी. चौड़ा है और नदी के किनारे से कुछेक मीटर की दूरी पर है। इन बारह
इकाईयों का तलक्षेत्र लगभग 838.125 वर्ग मी. है जो लगभग उतना ही होता है
जितना मोहन जोदड़ो के कोठार का। हड़प्पा के कोठारों के दक्षिण में खुला
फर्श है और इसपर दो कतारों में ईंट के वृत्ताकार चबूतरे बने हुए हैं। फर्श
की दरारों में गेहूँ और जौ के दाने मिले हैं। इससे प्रतीत होता है कि इन
चबूतरों पर फ़सल की दवनी होती थी। हड़प्पा में दो कमरों वाले बैरक भी मिले
हैं जो शायद मजदूरों के रहने के लिए बने थे। कालीबंगां में भी नगर के
दक्षिण भाग में ईंटों के चबूतरे बने हैं जो शायद कोठारों के लिए बने होंगे।
इस प्रकार यह स्पष्ट होता है कि कोठार हड़प्पा संस्कृति के अभिन्न अंग थे।
हड़प्पा संस्कृति के नगरों में ईंट का इस्तेमाल एक विशेष बात है,
क्योंकि इसी समय के मिस्र के भवनों में धूप में सूखी ईंट का ही प्रयोग हुआ
था। समकालीन मेसोपेटामिया में पक्की ईंटों का प्रयोग मिलता तो है पर इतने
बड़े पैमाने पर नहीं जितना सिन्धु घाटी सभ्यता में। मोहन जोदड़ो की जल
निकास प्रणाली अद्भुत थी। लगभग हर नगर के हर छोटे या बड़े मकान में प्रांगण
और स्नानागार होता था। कालीबंगां के अनेक घरों में अपने-अपने कुएं थे।
घरों का पानी बहकर सड़कों तक आता जहां इनके नीचे मोरियां (नालियां) बनी
थीं। अक्सर ये मोरियां ईंटों और पत्थर की सिल्लियों से ढकीं होती थीं।
सड़कों की इन मोरियों में नरमोखे भी बने होते थे। सड़कों और मोरियों के
अवशेष बनावली में भी मिले हैं।
आर्थिक जीवन
कृषि एवं पशुपालन
आज के मुकाबले सिन्धु प्रदेश पूर्व में बहुत उपजाऊ था। ईसा-पूर्व चौथी
सदी में सिकन्दर के एक इतिहासकार ने कहा था कि सिन्ध इस देश के उपजाऊ
क्षेत्रों में गिना जाता था। पूर्व काल में प्राकृतिक वनस्पति बहुत थीं
जिसके कारण यहां अच्छी वर्षा होती थी। यहां के वनों से ईंटे पकाने और इमारत
बनाने के लिए लकड़ी बड़े पैमाने पर इस्तेमाल में लाई गई जिसके कारण धीरे
धीरे वनों का विस्तार सिमटता गया। सिन्धु की उर्वरता का एक कारण सिन्धु नदी
से प्रतिवर्ष आने वाली बाढ़ भी थी। गांव की रक्षा के लिए खड़ी पकी ईंट की
दीवार इंगित करती है बाढ़ हर साल आती थी। यहां के लोग बाढ़ के उतर जाने के
बाद नवंबर
के महीने में बाढ़ वाले मैदानों में बीज बो देते थे और अगली बाढ़ के आने
से पहले अप्रील के महीने में गेहूँ और जौ की फ़सल काट लेते थे। यहां कोई
फावड़ा या फाल तो नहीं मिला है लेकिन कालीबंगां की प्राक्-हड़प्पा सभ्यता
के जो कूँट (हलरेखा) मिले हैं उनसे आभास होता है कि राजस्थान में इस काल
में हल जोते जाते थे।
सिन्धु घाटी सभ्यता के लोग गेंहू, जौ, राई, मटर, ज्वार आदि अनाज पैदा करते थे। वे दो किस्म की गेँहू पैदा करते थे। बनावली में मिला जौ उन्नत किस्म का है। इसके अलावा वे तिल और सरसों भी उपजाते थे। सबसे पहले कपास
भी यहीं पैदा की गई। इसी के नाम पर यूनान के लोग इस सिन्डन (Sindon) कहने
लगे। हड़प्पा योंतो एक कृषि प्रधान संस्कृति थी पर यहां के लोग पशुपालन भी
करते थे। बैल-गाय, भैंस, बकरी, भेड़ और सूअर पाला जाता था . हड़प्पाई लोगों को हाथी तथा गैंडे का ज्ञान था।
व्यापार
यहां के लोग आपस में पत्थर, धातु शल्क (हड्डी) आदि का व्यापार करते थे।
एक बड़े भूभाग में ढेर सारी सील (मृन्मुद्रा), एकरूप लिपि और मानकीकृत माप
तौल के प्रमाण मिले हैं। वे चक्के से परिचित थे और संभवतः आजकल के इक्के
(रथ) जैसा कोई वाहन प्रयोग करते थे। ये अफ़ग़ानिस्तान और ईरान (फ़ारस)
से व्यापार करते थे। उन्होंने उत्तरी अफ़ग़ानिस्तान में एक वाणिज्यिक
उपनिवेश स्थापित किया जिससे उन्हें व्यापार में सहूलियत होती थी। बहुत सी
हड़प्पाई सील मेसोपोटामिया में मिली हैं जिनसे लगता है कि मेसोपोटामिया से
भी उनका व्यापार सम्बंध था। मेसोपोटामिया के अभिलेखों में मेलुहा के साथ
व्यापार के प्रमाण मिले हैं साथ ही दो मध्यवर्ती व्यापार केन्द्रों का भी
उल्लेख मिलता है - दलमुन और माकन। दिलमुन की पहचान शायद फ़ारस की खाड़ी के
बहरीन के की जा सकती है।
राजनैतिक जीवन
इतना तो स्पष्ट है कि हड़प्पा की विकसित नगर निर्माण प्रणाली, विशाल
सार्वजनिक स्नानागारों का अस्तित्व और विदेशों से व्यापारिक संबंध किसी
बड़ी राजनैतिक सत्ता के बिना नहीं हुआ होगा पर इसके पुख्ता प्रमाण नहीं
मिले हैं कि यहां के शासक कैसे थे और शासन प्रणाली का स्वरूप क्या था।
लेकिन नगर व्यवस्था को देखकर लगता है कि कोई नगर निगम जैसी स्थानीय स्वशासन
वाली संस्था थी|
धार्मिक जीवन
मेवाड़ के एकलिंगनाथ जी
हड़प्पा में पकी मिट्टी की स्त्री मूर्तिकाएं भारी संख्या में मिली हैं।
एक मूर्ति में स्त्री के गर्भ से निकलता एक पौधा दिखाया गया है। विद्वानों
के मत में यह पृथ्वी देवी की प्रतिमा है और इसका निकट संबंध पौधों के जन्म
और वृद्धि से रहा होगा। इसलिए मालूम होता है कि यहां के लोग धरती को
उर्वरता की देवी समझते थे और इसकी पूजा उसी तरह करते थे जिस तरह मिस्र के
लोग नील नदी
की देवी आइसिस् की। लेकिन प्राचीन मिस्र की तरह यहां का समाज भी मातृ
प्रधान था कि नहीं यह कहना मुश्किल है। कुछ वैदिक सूक्तों में पृथ्वी माता
की स्तुति है,धोलावीरा के दुर्ग में एक कुआ मिला है इसमें नीचे की तरफ जाती सीडिया है और उसमे एक खिड़की थी जहा दीपक जलाने के साबुत मिलते है| उस कुए में सरस्वती नदी का पानी आता था, तो शायद सिंधु घाटी के लोग उस कुएँ के जरिये सरस्वती की पूजा करते थे।
सिंधु घाटी सभ्यता के नगरो में एक सील पाया जाता है जिसमे एक योगी का
चित्र है 3 या 4 मुख वाला, कई विद्वान मानते है की यह योगी शिव है| मेवाड़
जो कभी सिंधु घाटी सभ्यता की सीमा में था वहा आज भी 4 मुख वाले शिव के
अवतार एकलिंगनाथ जी की पूजा होती है| सिंधु घाटी सभ्यता के लोग अपने शवो को
जलाया करते थे, मोहन जोदड़ो
और हड़प्पा जैसे नगरो की आबादी करीब 50 हज़ार थी पर फिर भी वहा से केवल
100 के आसपास ही कब्रे मिली है जो इस बात की और इशारा करता है वे शव जलाते
थे| लोथल, कालीबंगा आदि जगहों पर हवन कुंद मिले है जो की उनके वैदिक होने
का प्रमाण है | यहाँ स्वस्तिक के चित्र भी मिले है |
कुछ विद्वान मानते है की हिंदू धर्म द्रविड़ो का मूल धर्म था और शिव
द्रविड़ो के देवता थे जिन्हें आर्यों ने अपना लिया| कुछ जैन और बोद्ध
विद्वान यह भी मानते है की सिंधु घाटी सभ्यता जैन या बोद्ध धर्म के थे, पर
मुख्यधारा के इतिहासकारों ने यह बात नकार दी और इसके अधिक प्रमाण भी नहीं
है |
प्राचीन मिस्र और मेसोपोटामिया
में पुरातत्वविदों को कई मंदिरों के अवशेष मिले है पर सिन्धी घाटी में आज
तक कोई मंदिर नहीं मिला, मार्शल आदि कई इतिहासकार मानते है की सिंधु घाटी
के लोग अपने घरो में, खेतो में या नदी किनारे पूजा किया करते थे, पर अभी तक
केवल बृहत्स्नानागार
या विशाल स्नानघर ही एक ऐसा स्मारक है जिसे पूजास्थल माना गया है| जैसे आज
हिंदू गंगा में नहाने जाते है वैसे ही सैन्धव लोग यहाँ नहाकर पवित्र हुआ
करते थे |
शिल्प और तकनीकी ज्ञान
मोहेन्जोदाड़ो में पाई गई एक मूर्ति - कराँची के राष्ट्रीय संग्रहालय से
सिन्धु-सरस्वती सभ्यता के दस वर्ण जो धोलावीरा के उत्तरी गेट के निकट सन् २००० ईसवी में खोजे गये हैं
[[चित्|अंगूठाकार|बाएँ|भिर्दाना
से प्राप्त नर्तकी का भित्तिचित्र ]] यद्यपि इस युग के लोग पत्थरों के
बहुत सारे औजार तथा उपकरण प्रयोग करते थे पर वे कांसे के निर्माण से भली
भींति परिचित थे। तांबे तथा टिन मिलाकर धातुशिल्पी कांस्य
का निर्माण करते थे। हंलांकि यहां दोनो में से कोई भी खनिज प्रचुर मात्रा
में उपलब्ध नहीं था। सूती कपड़े भी बुने जाते थे। लोग नाव भी बनाते थे।
मुद्रा निर्माण, मूर्तिका निर्माण के सात बरतन बनाना भी प्रमुख शिल्प था।
प्राचीन मेसोपोटामिया की तरह यहां के लोगों ने भी लेखन कला का आविष्कार किया था। हड़प्पाई लिपि का पहला नमूना 1853 ईस्वी में मिला था और 1923
में पूरी लिपि प्रकाश में आई परन्तु अब तक पढ़ी नहीं जा सकी है। लिपि का
ज्ञान हो जाने के कारण निजी सम्पत्ति का लेखा-जोखा आसान हो गया। व्यापार के
लिए उन्हें माप तौल की आवश्यकता हुई और उन्होने इसका प्रयोग भी किया। बाट
के तरह की कई वस्तुए मिली हैं। उनसे पता चलता है कि तौल में 16 या उसके
आवर्तकों (जैसे - 16, 32, 48, 64, 160, 320, 640, 1280 इत्यादि) का उपयोग
होता था। दिलचस्प बात ये है कि आधुनिक काल तक भारत में 1 रूपया 16 आने का होता था। 1 किलो में 4 पाव होते थे और हर पाव में 4 कनवां यानि एक किलो में कुल 16 कनवां।
अवसान
यह सभ्यता मुख्यतः 2500 ई.पू. से 1800 ई. पू. तक रही। ऐसा आभास होता है
कि यह सभ्य्ता अपने अंतिम चरण में ह्वासोन्मुख थी। इस समय मकानों में
पुरानी ईंटों के प्रयोग की जानकारी मिलती है। इसके विनाश के कारणों पर
विद्वान एकमत नहीं हैं। सिंधु घाटी सभ्यता के अवसान के पीछे विभिन्न तर्क
दिये जाते हैं जैसे: बर्बर आक्रमण, जलवायु परिवर्तन एवं पारिस्थितिक
असंतुलन, बाढ तथा भू-तात्विक परिवर्तन, महामारी, आर्थिक कारण। ऐसा लगता है
कि इस सभ्यता के पतन का कोइ एक कारण नहीं था बल्कि विभिन्न कारणों के मेल
से ऐसा हुआ। जो अलग अलग समय में या एक साथ होने कि सम्भावना है। मोहेन्जो
दरो मे नगर और जल निकास कि वय्व्वस्था से महामरी कि सम्भावन कम लगति है।
भिशन अग्निकान्द के भि प्रमान प्राप्त हुए है। मोहेन्जोदरो के एक कमरे से
१४ नर कन्काल मिले है जो आक्रमन, आगजनि, महामारी के संकेत है।
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thank you i will...