Sunday, 30 June 2019
वर्तमान में गांधी और अंबेडकर की प्रसंगिकता
हाल ही में रिलीज हुई फिल्म आर्टिकल 15 के संबंध में फेसबुक और सोशल मीडिया पर काफी कुछ टिप्पणियां देखने को मिली वर्तमान में यह मुद्दा अत्यंत चर्चा के विषय बने हुए हैं आरक्षण जिसमें मुख्य मुद्दा है
यहां पर इस बात को समझना होगा की प्राचीन काल में आरक्षण नहीं था लेकिन भेदभाव उस समय भी होता था आज आरक्षण है तब भी भेदभाव होता है क्योंकि समस्या आरक्षण में नहीं जातियों में है और जातियों केवल हिंदू धर्म में है
यानि मूल समस्या धर्म है.
आज के समय में अनुसूचित जाति जनजाति ओबीसी सिख और जैन भूतपूर्व सैनिक शरणार्थी महिलाओं तथा राज्य आंदोलनकारी महिलाओं. सैनिकों और यहां तक कि आर्थिक रूप से पिछड़े सवर्णो को भी आरक्षण प्राप्त है... आरक्षण और जाति के नाम पर भेदभाव केवल हिंदू धर्म के अंतर्गत अनुसूचित जाति के साथ ही क्यों होता है...
गांधीजी और बाबा साहब भीमराव अंबेडकर दोनों के द्वारा अस्पृश्यता उन्मूलन के लिए कार्य किया गया किंतु दोनों के विचारों में अंतर था गांधीजी का अपना कोई दर्शन तो नहीं था किंतु उनके नैतिक मूल्य थे उनके द्वारा आंदोलन की कमान उच्च वर्णों तक सीमित थी किंतु उच्च वर्ण अपने निजी स्वार्थों का त्याग करना नहीं चाहते थे
लेकिन दोनों के बीच जिस तरह का विरोध पनपा, उसके लिए ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन और उसके खिलाफ चल रहे स्वाधीनता संघर्ष की पृष्ठभूमि ही मुख्यतः जिम्मेदार थी। जहां गांधी का प्रथम लक्ष्य अंग्रेजों की गुलामी से मुक्ति पाना और भारत को एक स्वाधीन राष्ट्र बनाना था, वहीं आंबेडकर का प्रथम लक्ष्य दलितों को सवर्ण हिंदुओं की गुलामी से मुक्ति दिलाना और अपने पैरों पर खड़ा करना था। दोनों के बीच पहली बार कटुता लंदन में हुए गोलमेज सम्मेलन के समय प्रकट हुई। गांधी भारतीय स्वाधीनता आंदोलन के शीर्ष नेता थे लेकिन इस सम्मेलन में आमंत्रित 56 प्रतिनिधियों के बीच उनकी हैसियत और आवाज केवल एक प्रतिनिधि की थी। आंबेडकर ब्रिटिश सरकार द्वारा नामजद प्रतिनिधि थे। इस सम्मेलन में उन्होंने स्पष्ट शब्दों में कहा कि वे जिन दलित वर्गों का प्रतिनिधित्व करते हैं, उन्हें ब्रिटिश शासन की समाप्ति की कोई जल्दी नहीं है और न उन्होंने ब्रिटिश सरकार से भारतीयों को सत्ता हस्तांतरित किए जाने के लिए कोई आंदोलन ही छेड़ा है। यही नहीं, उन्हें यह मानने में भी आपत्ति थी कि गांधी राष्ट्रीय आंदोलन के सर्वमान्य नेता के रूप में सभी भारतीयों का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं। जिन्ना की तरह ही आंबेडकर भी गांधी को केवल हिंदू, बल्कि सवर्ण हिंदू नेता ही मानते थे। जिन्ना की तरह ही वह भी गांधी को हमेशा मिस्टर गांधी कहते रहे।
आज 2019 में जब देश गांधी की डेढ़सौवीं जयंती मना रहे हैं, तब यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि दलित समस्या पर आज गांधी का दृष्टिकोण अधिक प्रासंगिक है या आंबेडकर का? मेरा निजी विचार यह है कि इन दोनों परस्पर विरोधी दृष्टिकोणों को आज मिलाकर चलने की जरूरत है। गांधी की यह मान्यता कि मनुष्य के भीतर बदलाव लाए बिना समाज में बदलाव नहीं लाया जा सकता, आज सही सिद्ध हो रही है। संविधान में प्रदत्त अधिकारों के बावजूद आज भी देश में दलितों की हालत बेहद खराब है, क्योंकि सवर्णों का उनके प्रति हिकारत का रवैया नहीं बदला है और आज भी दलित दूल्हे के घोड़ी पर चढ़कर बारात निकालने पर गांव में हिंसा हो जाती है। यह भी सच है कि दलितों को कानून का संरक्षण दिया जाना अनिवार्य है, वरना उन पर अत्याचार करने वालों को मनमानी करने से रोकने के लिए कानून का सहारा भी नहीं रहेगा। दलितों के खिलाफ उत्पीड़न संबंधी कानून के प्रावधानों को नर्म बनाने पर छिड़ी बहस इसका ताजातरीन उदाहरण है। आंबेडकरवाद और गांधीवाद आज एक-दूसरे के पूरक अधिक हैं, विरोधी कम।
लगता है कि यह आंबेडकर का युग है, गांधी का नहीं क्योंकि अधिकांश दलित आंदोलनकारी गांधी के विरोधी और आंबेडकर के अनुयायी हैं। लेकिन इसी के साथ यह प्रश्न भी उठता है कि यदि गांधीवादी विचारधारा दलितों का वास्तविक उत्थान नहीं कर पाई तो क्या आंबेडकरवादी विचारधारा के आधार पर हुए आंदोलन इस काम में सफलता प्राप्त कर पाए हैं? क्या अब समय नहीं आ गया कि गांधी और आंबेडकर के विचारों के बीच साम्य और संतुलन बिठाने की कोशिश की जाए, भले ही दोनों महापुरुष अपने जीवनकाल में अधिकांशतः असहमत ही रहे हों? जब हिंदुत्ववादी संघ इन दोनों के विचारों के साथ समरसता पैदा करना चाहता है, भले ही दिखावे के लिए ही सही तो फिर गांधीवादी और आंबेडकरवादी एक-दूसरे को समझने और साथ-साथ चलने के लिए राजी क्यों नहीं हो सकते?
गांधी और भीमराव आंबेडकर के आदर्शों में कोई अंतर था? क्या दोनों ही दलितों के उत्थान, जाति पर आधारित भेदभाव की समाप्ति और मनुष्य की समानता के लक्ष्यों के प्रति ईमानदारी के साथ समर्पित नहीं थे? ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन के खिलाफ चले स्वाधीनता आंदोलन के विशिष्ट संदर्भ में उनके बीच उभरे मतभेद क्या आज के बदले हुए संदर्भ में भी उतने ही प्रासंगिक और महत्वपूर्ण हैं जितने वे आज से आठ-नौ दशक पहले थे? संभवतः नहीं। वह मेरे नीचे विचार है आप मुझे अपने सुझाव या विचार मेरे फेसबुक पेज पर दे सकते हैं कृपया नकारात्मक टिप्पणी ना करें धन्यवाद...
उर्दू गजल शायरी का इतिहास विकास
वैसे तो आजकल के दौर में फेसबुक व्हाट्सएप के कारण बहुत से नए कवि इजाद हो गए हैं जिनमें से मैं भी एक प्रमुख हूं.. मेरे द्वारा पसंद आने पर अपने फोटो के साथ कैप्शन लिख दिया जाता है लोगों के द्वारा व्यक्तिगत टिप्पणी भी की जाती है व इसका कारण पूछा जाता है यहां पर यह बताना समीचीन होगा कि उसका मेरे निजी जीवन से कोई भी ताल्लुक नहीं है यदि किसी शायरी का इससे संबंध पाया जाता है तो वह मात्र एक सहयोग कहा जाएगा..
इसी क्रम में ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में कुछ बिंदुओं को आपके साथ भी साझा कर रहा हूं..
शेरो शायरी अधिकतर अरबी फारसी शब्दों के साथ उन्नति के शिखर पर पहुंची इसमें उर्दू जो कोई स्वतंत्र भाषा नहीं है फिर भी यह भाषा मानी जाती है क्योंकि इसका जन्म अरबी व फारसी लिपि के योग से हुआ है
भारतीय परिप्रेक्ष्य में मध्यकालीन भारत मुस्लिम साम्राज्य के दौरान इस को प्रोत्साहन मिला तब हिंदुओं के लिए भी इसकी शिक्षा प्राप्त करना आवश्यक हो गया था हिंदू मुस्लिम दोनों कवियों और लेखकों ने अपनी रचनाओं में इस भाषा का प्रयोग किया मध्यकालीन भारत में जनता व लोगों की भावनाओं से संबंधित शेरो शायरिया लिखने का दौर शुरू हुआ जो जो अंतर्मन की गहराइयों से लिखी जाती थी उस समय यह प्रसिद्धि प्राप्त करती चली गई..
भक्ति आंदोलन के क्रम में सूफी परंपराओं के साथ इस्लामी जगत में भी इस क्षेत्र में अपार उन्नति हुई तथा शेरो शायरी कव्वाली के साथ अपनी अभिव्यक्ति प्रस्तुत करने का दौर शुरू हुआ....
फारसी से ग़ज़ल उर्दू में आई। उर्दू का पहला शायर जिसका काव्य-संकलन (दीवान) प्रकाशित हुआ हैं, वह हैं मोहम्मद क़ुली क़ुतुबशाह। जो दक्कन के बादशाह थे और आपकी शायरी में फारसी के अलावा उर्दू और उस वक़्त की दक्कनी बोली भी शामिल थी।
कुली कुतुबशाह के बाद के शायर हैं ग़व्वासी, वज़ही, बहरी और कई अन्य। इस दौर से गुज़रती ग़ज़ल वली दकनी तक आ पहुंची और उस समय तक ग़ज़ल पर छाई हुई दकनी छाप काफी कम हो गई। वली ने सर्वप्रथम ग़ज़ल को अच्छी शायरी का दर्जा दिया और फारसी शायरी के बराबर ला खडा किया।
दूसरा दौर-
इस दौर के सब से मशहूर शायर हैं ‘मीर’ और ‘सौदा’। इस दौर को उर्दू शायरी का ‘सुवर्णकाल’ कहा जाता हैं। इस दौर के अन्य शायरों में मीर ‘दर्द’ और मीर ग़ुलाम हसन का नाम भी काफी मशहूर था। इस ज़माने में उच्च कोंटि की ग़ज़लें लिखी गईं जिसमें ग़ज़ल की भाषा, ग़ज़ल का उद्देश्य और उसकी नाज़ुकी या नज़ाकतों को संवारा गया। मीर की शायरी में दर्द कुछ इस तरह उभरा कि उसे दिल और दिल्ली का मर्सिया कहा जाने लगा।
देख तो दिल कि जां से उठाता हैं।
ये धुआं सा कहां से उठता हैं। ।
दर्द के साथ साथ मीर की शायरी में नज़ाकत भी तारीफ के क़ाबिल थी।
इस दौर की शायरी की एक और महत्वपूर्ण बात यह हैं कि इस ज़माने के अधिकांश शायर सूफी पंथ के थे। इसलिये इस दौर की ग़ज़लों में सूफी पंथ के पवित्र विचारों का विवरण भी मिलता हैं।
वक़्त ने करवट बदली और दिल्ली की सल्तनत का चिराग टिमटिमाने लगा। फैज़ाबाद और लखनऊ में, जहां दौलत की भरमार थी, शायर दिल्ली और दूसरी जगाहों को छोडकर, इकट्ठा होने लगे
शायरों के साथ एक बदनसीब शायर भी था जिसने ज़िंदगी के अंतिम क्षणों में वतन से दूर किसी जेल की अंधेरी कोठरी में लडखडाती ज़बान से कहा था-
कितना हैं बदनसीब ‘ज़फर’ दफ्न के लिये।
दो गज़ ज़मीन भी न मिली कू-ए-यार में। ।
-बहादुरशाह ज़फर
१८५७ में दिल्ली उजडी, लखनऊ बर्बाद हुआ। ऐशो-आराम और शांति के दिन ख़त्म हुए। शायर अब दिल्ली और लखनऊ छोड रामपूर, भोपाल, मटियाब्रिज और हैद्राबाद पहुंच वहां के दरबारों की शान बढाने लगे। अब उर्दू शायरी में दिल्ली और लखनऊ का मिला-जुला अंदाज़ नज़र आने लगा। इस दौर के दो मशहूर शायर ‘दाग’ और ‘अमीर मीनाई’ हैं।
यह वक़्त अंग्रेज़ी हुकूमत की गिरफ्त का होते हुए भी भारतीय इंसान आज़ादी के लिये छटपटा रहा था और कभी कभी बग़ावत भी कर बैठता। जन-जीवन जागृत हो रहा था। आज़ादी के सपने देखे जा रहे थे और लेखनी तलवार बन रही थी। अब ग़ज़लों में चारित्र्य और तत्वज्ञान की बातें उभरने लगीं। राष्ट्रीयता यानी क़ौमी भावनाओं पर कविताएं लिखी गई और अंग्रेज़ी हुकूमत एवं उसकी संस्कृती पर ढके छुपे लेकिन तीखे व्यंगात्मक शेर भी लिखे जाने लगे। अब ग़ज़ल में इश्क़ का केंद्र खुदा या माशुक न होकर राष्ट्र और मातृभूमि हुई। इसका मुख्य उद्देश्य अब आज़ादी हो गया। ‘हाली’, ‘अकबर इलाहबादी’ ‘चकबिस्त’ और ‘इक़बाल’ इस युग के ज्वलंत शायर हैं।
सारे जहां से अच्छा हिंदोस्तां हमारा।
हम बुलबुलें हैं इसके, ये गुलिस्तां हमारा। ।
‘इक़बाल’ की यह नज़्म हर भारतीय की ज़बान पर थी और आज भी हैं। ‘अक़बर’ के व्यंग भी इतने ही मशहूर हैं। लेकिन एक बात का उल्लेख करना यहां ज़रूरी हैं कि इन शायरों ने ग़ज़लें कम और नज़्में अथवा कविताएं ज़्यादा लिखीं। और यथार्थ में ग़ज़ल को सब से पहला धक्का यहीं लगा। कुछ लोगों ने तो यह सोचा कि ग़ज़ल ख़त्म की जा रही हैं।
लेकिन ग़ज़ल की ख़ुशक़िस्मती कहिये कि उसकी डगमगाती नाव को ‘हसरत’, ‘जिगर’, ‘फनी’, ‘असग़र गोंडवी’ जैसे महान शायरों ने संभाला, उसे नई औऱ अच्छी दिशा दिखलाई, दोबारा ज़िंदा किया और उसे फिर से मक़बूल किया। ‘जिगर’ और ‘हसरत’ ने महबूब को काल्पनिक दुनिया से निकाल कर चलती फिरती दुनिया में ला खडा किया। पुरानी शायरी में महबूब सिर्फ महबूब था, कभी आशिक़ न बना था। ‘हसरत’ और ‘जिगर’ ने महबूब को महबूब तो माना साथ ही उसे एक सर्वांग संपूर्ण इंसान भी बना दिया जिसने दूसरों को चाहा, प्यार किया और दूसरों से भी यही अपेक्षा की।
दोपहर की धूप में मेरे बुलाने के लिये।
वो तेरा कोठे पे नंगे पांव आना याद है। ।
-हसरत
ग़ज़ल का यह रूप लोगों को बहुत भाया। ग़ज़ल अब सही अर्थ में जवान हुई।
फैज़ अहमद फैज़ का ज़िक्र अलग से करना अनिवार्य हैं। यह पहले शायर हैं जिन्होंने ग़ज़ल में राजनीति लाई औऱ साथ साथ ज़िंदगी की सर्वसाधारण उलझनों और हक़ीक़तों को बडी ख़ूबी और सफाई से पेश किया।
मता-ए-लौहो कलम छिन गई तो क्या ग़म हैं।
कि ख़ूने दिल में डुबो ली हैं उंगलियां मैंने। ।
जेल की सीखचों के पीछे क़ैद ‘फैज़’ के आज़द क़लम का यह नमूना ऊपर लिखी हुई बात को पूर्णत: सिद्ध करता हैं।
शक्ल धुंधली सी हैं, शीशे में निखर जायेगी।
मेरे एहसास की गर्मी से संवर जायेगी।।
आज वो काली घटाओं पे हैं नाज़ां लेकिन।
चांद सी रोशनी बालों में उतर जायेगी। ।
– ज़रीना सानी
फिलहाल यह ग़ज़ले प्रारंभिक एवं प्रायोगिक अवस्था में हैं। वर्तमान में युवाओं को मोटिवेशनल के साथ साथ युवा दुष्यंत कुमार व मिलने वह बिछड़ने से संबंधित अंदाज पसंद है जिन्हें वह अपने दूरभाष सचल यंत्र के माध्यम से व्हाट्सएप स्टेटस में लगाते हैं.....
इसी क्रम में ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में कुछ बिंदुओं को आपके साथ भी साझा कर रहा हूं..
शेरो शायरी अधिकतर अरबी फारसी शब्दों के साथ उन्नति के शिखर पर पहुंची इसमें उर्दू जो कोई स्वतंत्र भाषा नहीं है फिर भी यह भाषा मानी जाती है क्योंकि इसका जन्म अरबी व फारसी लिपि के योग से हुआ है
भारतीय परिप्रेक्ष्य में मध्यकालीन भारत मुस्लिम साम्राज्य के दौरान इस को प्रोत्साहन मिला तब हिंदुओं के लिए भी इसकी शिक्षा प्राप्त करना आवश्यक हो गया था हिंदू मुस्लिम दोनों कवियों और लेखकों ने अपनी रचनाओं में इस भाषा का प्रयोग किया मध्यकालीन भारत में जनता व लोगों की भावनाओं से संबंधित शेरो शायरिया लिखने का दौर शुरू हुआ जो जो अंतर्मन की गहराइयों से लिखी जाती थी उस समय यह प्रसिद्धि प्राप्त करती चली गई..
भक्ति आंदोलन के क्रम में सूफी परंपराओं के साथ इस्लामी जगत में भी इस क्षेत्र में अपार उन्नति हुई तथा शेरो शायरी कव्वाली के साथ अपनी अभिव्यक्ति प्रस्तुत करने का दौर शुरू हुआ....
फारसी से ग़ज़ल उर्दू में आई। उर्दू का पहला शायर जिसका काव्य-संकलन (दीवान) प्रकाशित हुआ हैं, वह हैं मोहम्मद क़ुली क़ुतुबशाह। जो दक्कन के बादशाह थे और आपकी शायरी में फारसी के अलावा उर्दू और उस वक़्त की दक्कनी बोली भी शामिल थी।
कुली कुतुबशाह के बाद के शायर हैं ग़व्वासी, वज़ही, बहरी और कई अन्य। इस दौर से गुज़रती ग़ज़ल वली दकनी तक आ पहुंची और उस समय तक ग़ज़ल पर छाई हुई दकनी छाप काफी कम हो गई। वली ने सर्वप्रथम ग़ज़ल को अच्छी शायरी का दर्जा दिया और फारसी शायरी के बराबर ला खडा किया।
दूसरा दौर-
इस दौर के सब से मशहूर शायर हैं ‘मीर’ और ‘सौदा’। इस दौर को उर्दू शायरी का ‘सुवर्णकाल’ कहा जाता हैं। इस दौर के अन्य शायरों में मीर ‘दर्द’ और मीर ग़ुलाम हसन का नाम भी काफी मशहूर था। इस ज़माने में उच्च कोंटि की ग़ज़लें लिखी गईं जिसमें ग़ज़ल की भाषा, ग़ज़ल का उद्देश्य और उसकी नाज़ुकी या नज़ाकतों को संवारा गया। मीर की शायरी में दर्द कुछ इस तरह उभरा कि उसे दिल और दिल्ली का मर्सिया कहा जाने लगा।
देख तो दिल कि जां से उठाता हैं।
ये धुआं सा कहां से उठता हैं। ।
दर्द के साथ साथ मीर की शायरी में नज़ाकत भी तारीफ के क़ाबिल थी।
इस दौर की शायरी की एक और महत्वपूर्ण बात यह हैं कि इस ज़माने के अधिकांश शायर सूफी पंथ के थे। इसलिये इस दौर की ग़ज़लों में सूफी पंथ के पवित्र विचारों का विवरण भी मिलता हैं।
वक़्त ने करवट बदली और दिल्ली की सल्तनत का चिराग टिमटिमाने लगा। फैज़ाबाद और लखनऊ में, जहां दौलत की भरमार थी, शायर दिल्ली और दूसरी जगाहों को छोडकर, इकट्ठा होने लगे
शायरों के साथ एक बदनसीब शायर भी था जिसने ज़िंदगी के अंतिम क्षणों में वतन से दूर किसी जेल की अंधेरी कोठरी में लडखडाती ज़बान से कहा था-
कितना हैं बदनसीब ‘ज़फर’ दफ्न के लिये।
दो गज़ ज़मीन भी न मिली कू-ए-यार में। ।
-बहादुरशाह ज़फर
१८५७ में दिल्ली उजडी, लखनऊ बर्बाद हुआ। ऐशो-आराम और शांति के दिन ख़त्म हुए। शायर अब दिल्ली और लखनऊ छोड रामपूर, भोपाल, मटियाब्रिज और हैद्राबाद पहुंच वहां के दरबारों की शान बढाने लगे। अब उर्दू शायरी में दिल्ली और लखनऊ का मिला-जुला अंदाज़ नज़र आने लगा। इस दौर के दो मशहूर शायर ‘दाग’ और ‘अमीर मीनाई’ हैं।
यह वक़्त अंग्रेज़ी हुकूमत की गिरफ्त का होते हुए भी भारतीय इंसान आज़ादी के लिये छटपटा रहा था और कभी कभी बग़ावत भी कर बैठता। जन-जीवन जागृत हो रहा था। आज़ादी के सपने देखे जा रहे थे और लेखनी तलवार बन रही थी। अब ग़ज़लों में चारित्र्य और तत्वज्ञान की बातें उभरने लगीं। राष्ट्रीयता यानी क़ौमी भावनाओं पर कविताएं लिखी गई और अंग्रेज़ी हुकूमत एवं उसकी संस्कृती पर ढके छुपे लेकिन तीखे व्यंगात्मक शेर भी लिखे जाने लगे। अब ग़ज़ल में इश्क़ का केंद्र खुदा या माशुक न होकर राष्ट्र और मातृभूमि हुई। इसका मुख्य उद्देश्य अब आज़ादी हो गया। ‘हाली’, ‘अकबर इलाहबादी’ ‘चकबिस्त’ और ‘इक़बाल’ इस युग के ज्वलंत शायर हैं।
सारे जहां से अच्छा हिंदोस्तां हमारा।
हम बुलबुलें हैं इसके, ये गुलिस्तां हमारा। ।
‘इक़बाल’ की यह नज़्म हर भारतीय की ज़बान पर थी और आज भी हैं। ‘अक़बर’ के व्यंग भी इतने ही मशहूर हैं। लेकिन एक बात का उल्लेख करना यहां ज़रूरी हैं कि इन शायरों ने ग़ज़लें कम और नज़्में अथवा कविताएं ज़्यादा लिखीं। और यथार्थ में ग़ज़ल को सब से पहला धक्का यहीं लगा। कुछ लोगों ने तो यह सोचा कि ग़ज़ल ख़त्म की जा रही हैं।
लेकिन ग़ज़ल की ख़ुशक़िस्मती कहिये कि उसकी डगमगाती नाव को ‘हसरत’, ‘जिगर’, ‘फनी’, ‘असग़र गोंडवी’ जैसे महान शायरों ने संभाला, उसे नई औऱ अच्छी दिशा दिखलाई, दोबारा ज़िंदा किया और उसे फिर से मक़बूल किया। ‘जिगर’ और ‘हसरत’ ने महबूब को काल्पनिक दुनिया से निकाल कर चलती फिरती दुनिया में ला खडा किया। पुरानी शायरी में महबूब सिर्फ महबूब था, कभी आशिक़ न बना था। ‘हसरत’ और ‘जिगर’ ने महबूब को महबूब तो माना साथ ही उसे एक सर्वांग संपूर्ण इंसान भी बना दिया जिसने दूसरों को चाहा, प्यार किया और दूसरों से भी यही अपेक्षा की।
दोपहर की धूप में मेरे बुलाने के लिये।
वो तेरा कोठे पे नंगे पांव आना याद है। ।
-हसरत
ग़ज़ल का यह रूप लोगों को बहुत भाया। ग़ज़ल अब सही अर्थ में जवान हुई।
फैज़ अहमद फैज़ का ज़िक्र अलग से करना अनिवार्य हैं। यह पहले शायर हैं जिन्होंने ग़ज़ल में राजनीति लाई औऱ साथ साथ ज़िंदगी की सर्वसाधारण उलझनों और हक़ीक़तों को बडी ख़ूबी और सफाई से पेश किया।
मता-ए-लौहो कलम छिन गई तो क्या ग़म हैं।
कि ख़ूने दिल में डुबो ली हैं उंगलियां मैंने। ।
जेल की सीखचों के पीछे क़ैद ‘फैज़’ के आज़द क़लम का यह नमूना ऊपर लिखी हुई बात को पूर्णत: सिद्ध करता हैं।
शक्ल धुंधली सी हैं, शीशे में निखर जायेगी।
मेरे एहसास की गर्मी से संवर जायेगी।।
आज वो काली घटाओं पे हैं नाज़ां लेकिन।
चांद सी रोशनी बालों में उतर जायेगी। ।
– ज़रीना सानी
फिलहाल यह ग़ज़ले प्रारंभिक एवं प्रायोगिक अवस्था में हैं। वर्तमान में युवाओं को मोटिवेशनल के साथ साथ युवा दुष्यंत कुमार व मिलने वह बिछड़ने से संबंधित अंदाज पसंद है जिन्हें वह अपने दूरभाष सचल यंत्र के माध्यम से व्हाट्सएप स्टेटस में लगाते हैं.....
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