अजंता गुफाएं महाराष्ट्र, भारत में स्थित पाषाण कट स्थापत्य गुफाएं हैं। यह स्थल द्वितीय शताब्दी ई.पू. के हैं। यहां बौद्ध धर्म से सम्बंधित चित्रण एवं शिल्पकारी के उत्कृष्ट नमूने मिलते हैं।[1] इनके साथ ही सजीव चित्रण[2] भी मिलते हैं। यह गुफाएं अजंता नामक गांवे के सन्निकट ही स्थित हैं, जो कि महाराष्ट्र के औरंगाबाद जिले में हैं। (निर्देशांक: 20° 30’ उ० 75° 40’ पू०) अजंता गुफाएं सन 1983 से युनेस्को की विश्व धरोहर स्थल घोषित है।"[3]
‘’’नैशनल ज्यॉग्राफिक ‘’’ के अनुसार: आस्था का बहाव ऐसा था, कि ऐसा
प्रतीत होता है, जैसे शताब्दियों तक अजंता समेत, लगभग सभी बौद्ध मंदिर,
हिन्दू राजाओं के शासन और आश्रय के अधीन बनवाये गये हों।[4]
अनुक्रम
क्षेत्र
अजंता गुफाओं से जातक कथाएं
अजंता गुफाएं- टिकट कार्यालय से एक दृश्य
घोड़े की नाल के आकार का अजंता एस्कार्पमेंट, जैसा कि गिफा व्यू पाइंट, 8 कि.मी> दूर से दिखता है।
गुफाएं एक घने जंगल से घिरी, अश्व नाल आकार घाटी में अजंता गांव से 3½ कि॰मी॰ दूर बनीं हैं। यह गांव महाराष्ट्र के औरंगाबाद शहर से 106 कि॰मी॰ दूर बसा है। इसका निकटतम कस्बा है जलगाँव, जो 60 कि॰मी॰ दूर है, भुसावल 70 कि॰मी॰ दूर है। इस घाटी की तलहटी में पहाड़ी धारा वाघूर बहती है। यहां कुल 29 गुफाएं (भारतीय पुरातात्विक सर्वेक्षण विभाग
द्वारा आधिकारिक गणनानुसार) हैं, जो कि नदी द्वारा निर्मित एक प्रपात के
दक्षिण में स्थित है। इनकी नदी से ऊंचाई 35 से 110 फीट तक की है।
अजंता का मठ जैसा समूह है, जिसमें कई विहार (मठ आवासीय) एवं चैत्य गृह
हैं (स्तूप स्मारक हॉल), जो कि दो चरणों में बने हैं। प्रथम चरण को गलती से
हीनयान चरण कहा गया है, जो कि बौद्ध धर्म के हीनयान मत से संबंधित हैं। वस्तुतः हिनायन स्थविरवाद
के लिये एक शब्द है, जिसमें बुद्ध की मूर्त रूप से कोई निषेध नहीं है।
अजंता की गुफा संख्या 9, 10, 12, 13 15ए (अंतिम गुफा को 1956 में ही खोजा
गया और अभि तक संख्यित नहीं किया गया है।) को इस चरण में खोजा गया था। इन
खुदाइयों में बुद्ध को स्तूप या मठ रूप में दर्शित किया गया है।
दूसरे चरण की खुदाइयां लगभग तीन शताब्दियों की स्थिरता के बाद खोजी गयीं। इस चरण को भी गलत रूप में महायान
चरण ९बौद्ध धर्म का दूसरा बड़ा धड़ा, जो कि कमतर कट्टर है, एवं बुद्ध को
सीधे गाय आदि रूप में चित्रों या शिल्पों में दर्शित करने की अनुमति देता
है।) कई लोग इस चरण को वाकाटक
चरण कहते हैं। यह वत्सगुल्म शाखा के शासित वंश वाकाटक के नाम पर है। इस
द्वितीय चरण की निर्माण तिथि कई शिक्षाविदों में विवादित है। हाल के वर्षों
में, कुछ बहुमत के संकेत इसे पाँचवीं शताब्दी
में मानने लगे हैं। वॉल्टर एम.स्पिंक, एक अजंता विशेषञ के अनुसार महायन
गुफाएं 462-480 ई. के बीच निर्मित हुईं थीं। महायन चरण की गुफाएं संख्या
हैं 1, 2, 3, 4, 5, 6, 7, 8, 11, 14, 15, 16, 17, 18, 19, 20, 21, 22, 23,
24, 25, 26, 27, 28, एवं 29। गुफा संख्या 8 को लम्बे समय तक हिनायन चरण की
गुफा समझा गया, किन्तु वर्तमान में तथ्यों के आधार पर इसे महायन घोषित किया
गया है।
महायनहिनायन चरण में दो चैत्यगृह मिले थे, जो गुफा संख्या 9 व 10 में
थे। इस चरण की गुफा संख्या 12, 13, 15 विहार हैं। महायन चरण में तीन चैत्य
गृह थे जो संख्या 19, 26, 29 में थे। अंतिम गुफा अनावासित थी, अपने आरंभ से
ही। अन्य सभी मिली गुफाएं 1-3, 5-8, 11, 14-18, 20-25, व 27-28 विहार हैं।
खुदाई में मिले विहार कई नापों के हैं, जिनमें सबसे बड़ा 52 फीट का है।
प्रायः सभी वर्गाकार हैं। इनके रूप में भी भिन्नता है। कई साधारण हैं, तो
कई अलंकृत हैं, कुछ के द्वार मण्डप बने हैं, तो कई के नहीं बने हैं। सभी
विहारों में एक आवश्यक घटक है – एक वृहत हॉल कमरा। वाकाटक चरण वालों में,
कैयों में पवित्र स्थान नहीं बने हैं, क्योंकि वे केवल धार्मिक सभाओं एवं
आवास मात्र हेतु बने थे। बाद में उनमें पवित्र स्थान जोड़े गये। फिर तो यह
एक मानक बन गया। इस पवित्र स्थान में एक केन्द्रीय कख्ष में बुद्ध की
मूर्ति होती थी, प्रायः धर्मचक्रप्रवर्तन मुद्रा में बैठे हुए। जिन गुफाओं
में नवीनतम फीचर्स हैं, वहां किनारे की दीवारों, द्वार मण्डपों पर और
प्रांगण में गौण पवित्र स्थल भी बने दिखते हैं। कई विहारों के दीवारों के
फलक नक्काशी से अलंकृत हैं, दीवारों और छतों पर भित्ति चित्रण किया हुआ है।
प्रथम शताब्दी
में हुए बौद्ध विचारों में अंतर से, बुद्ध को देवता का दर्जा दिया जाने
लगा और उनकी पूजा होने लगी और परिणामतः बुद्ध को पूजा-अर्चना का केन्द्र
बनाया गया, जिससे महायन की उत्पत्ति हुई।
पूर्व में, शिक्षाविदों ने गुफाओं को तीन समूहों में बांटा था, किन्तु
साक्ष्यों को देखते हुए और शोधों के चलते उसे नकार दिया गया। उस सिद्धांत
के अनुसार 200 ई.पू से 200 ई. तक एक समूह, द्वितीय समूह छठी शताब्दी का और तृतीय समूह सातवीं शताब्दी का माना जाता था।
आंग्ल-भारतीयों द्वारा विहारों हेतु प्रयुक्त अभिव्यंजन गुफा-मंदिर अनुपयुक्त माना गया। अजंता एक प्रकार का महाविद्यालय मठ था। ह्वेन त्सांग
बताता है, कि दिन्नाग, एक प्रसिद्ध बौद्ध दार्शनिक, तत्वज्ञ, जो कि
तर्कशास्त्र पर कई ग्रन्थों का लेखक था, यहां रहता था। यह अभी अन्य
साक्ष्यों से प्रमाणित होना शेष है। अपने चरम पर, विहार सैंकड़ों को
समायोजित करने की सामर्थ्य रखते थे। यहां शिक्षक और छात्र एक साथ रहते थे।
यह अति दुःखद है, कि कोई भी वाकाटक चरं की गुफा पूर्ण नहीं है। यह इस कारण
हुआ, कि शासक वाकाटक वंश
एकाएक शक्ति-विहीन हो गया, जिससे उसकी प्रजा भी संकट में आ गयी। इसी कारण
सभी गतिविधियां बाधित होकर एकाएक रुक गयीं। यह समय अजंता का अंतिम काल रहा।
गुफा – एक पहला कदम
धार्मिक स्थल |
गुफा सं० 1 से एक चित्रकारी का नमूना
गुफा सं० 1
यह एक प्रथम कदम है और इसका अन्य गुफाओं के समयानुसार क्रम से कोई मतलब
नहीं है। यह अश्वनाल आकार की ढाल पर पूर्वी ओर से प्रथम गुफा है। स्पिंक के
अनुसार, यह इस स्थल पर बनी अंतिम गुफाओं में से एक है और वाकाटक चरण के
समाप्ति की ओर है। हालांकि कोई शिलालेखित साक्ष्य उपस्थित नहीं हैं, फिर भी
यह माना जाता है, कि वाकाटक राजा हरिसेना, इस उत्तम संरक्षित गुफा के
संरक्षक रहे हों। इसका प्रबल कारण यह है, कि हरिसेना आरम्भ में अजंता के
संरक्षण में सम्मिलित नहीं था, किन्तु लम्बे समय तक इनसे अलग नहीं रह सका,
क्योंकि यह स्थल उसके शासन काल में गतिविधियों से भरा रहा और उसकी बौद्ध
प्रजा को उस हिन्दू राजा का इस पवित्र कार्य को आश्रय देना प्रसन्न कर सकता
था। यहां दर्शित कई विषय राजसिक हैं।
इस गुफा में, अत्यंत विस्तृत नक्काशी कार्य किया गया है, जिसमें कई अति
उभरे हुए शिल्प भी हैं। यहां बुद्ध के जीवन से संबंधित कई घटनाएं अंकित
हैं, साथ ही अनेक अलंकरण नमूने भी हैं। इसका द्वि स्तंभी द्वार-मण्डप, जो उन्नीसवीं शताब्दी
तक दृश्य था (तब के चित्रानुसार), वह अब लुप्त हो चुका है। इस गुफा के आगे
एक खुला स्थान था, जिसके दोनों ओर खम्भेदार गलियारे थे। इसका स्तर
अपेक्षाकृत ऊंचा था। इसके द्वार मण्डप के दोनों ओर कोठियां हैं। इसके अन्त
में खम्भेदार प्रकोष्ठों की अनुपस्थिति, बताती है, कि यह मण्डप अजंता के
अन्तिम चरण के साथ नहीं बना था, जब कि खम्भेदार प्रकोष्ठ एक नियमित अंग बन
चुके थे। पोर्च का अधिकांश क्षेत्र कभी मुराल से भरा रहा होगा, जिसके कई
अवशेष अभी भी शेष हैं। यहां तीन द्वार पथ हैं, एक केन्द्रीय, व दो किनारे
के। इन द्वारपथों के बीच दो वर्गाकार खिड़कियां तराशी हुईं हैं, जिनसे अंतस
उज्ज्वलित होता था।
हॉल की प्रत्येक दीवार लगभग 40 फीट लम्बी और 20 फीट ऊंची है। बारह स्तंभ
अंदर एक वर्गाकार कॉलोनेड बनाते हैं, जो छत को सहारा देते हैं, साथ ही
दीवारों के साथ साथ एक गलियारा सा बनाते हैं। पीछे की दीवार पर एक गर्भगृह
नुमा छवि तराशि गयी है, जिसमें बुद्ध अपनी धर्मचक्रप्रवर्तन मुद्रा में
बैठे दर्शित हैं। पीछे, बायीं एवं दांयी दीवार में चार चार कमरे बने हैं।
यह दीवारें चित्रकारी से भरीं हैं, जो कि संरक्षण की उत्तम अवस्था में हैं।
दर्शित दृश्य अधिकतर उपदेशों, धार्मिक, एवं अलंकरण के हैं। इनके विषय जातक कथाओं, गौतम बुद्ध के जीवन, आदि से सम्बंधित हैं।
गुफा संख्या 2
गुफा संख्या 2 में चित्रकारी
अजंता गुफाओं से चित्रकारी
अजंता गुफाएं
अजंता गुफाएं
गुफा संख्या १ से लगी गुफा सं०2, दीवारों, छतों एवं स्तंभों पर संरक्षित
अपनी चित्रकारी के लिये प्रसिद्ध है। यह अत्यंत ही सुंदर दिखती है, एवं
गुफा संख्या के लगभग समान ही दिखती है, किन्तु संरक्षण की कहीं बेहतर
स्थिति में है।
फलक
इस गुफा में दो द्वार-मंडप हैं, जो कि सं 1 से बहुत अलग है। बल्कि अलकों
की नक्काशी भी उससे अलग दिखती है। इस गुफा को सहारा दिये दो अच्छे खासे
मोटे स्तंभ हैं, जो कि भारी नक्काशी से अलंकृत हैं। हां, आकार, नाप एवं
भूमि योजना में अवश्य यह पहली गुफा से काफी मिलती है।
द्वार-मण्डप
सामने का पोर्च दोनों ओर स्तंभों से युक्त प्रकोष्ठों से युक्त है।
पूर्व में रिक्त छोड़े स्थानों पर बने कमरे आवश्यक होने पर बाद में, स्थान
की आवश्यकता होने पर बने, क्योंकि बाद में आवास की अधिक आवश्यकता बढ़ी। सभी
बाद की वाकाटक निर्माणों में, पोर्च के अंत में प्रकोष्ठ आवश्यक अंग बन
गये। इस की छतों और दीवारों पर बने भित्ति चित्रों का पर्याप्त मात्रा में
प्रकाशन हुआ है। इनमें बुद्ध के जन्म से पूर्व बोधिसत्व रूप के अन्य जन्मों
की कथाएं हैं। पोर्च की पीछे की दीवार के बीच एक द्वार-पथ है, जिससे हॉल
में प्रवेश होता है। द्वार के दोनों ओर वर्गाकार चौड़ी खिड़कियां हैं, जो
प्रचुर प्रकाश उपलब्ध करातीं हैं। इसके साथ ही संदरता एवं सम्मिति लाती
हैं।
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