Friday, 31 January 2020

गढ़वाल राइफल्स बलभद्र सिंह नेगी

दूसरे अंग्रेज अफगान युद्ध 1879-80 मैं बलभद्र सिंह के कौशल से प्रसन्न होकर अंग्रेज अधिकारी लॉर्ड रोबोट्स ने तत्कालीन वायसराय लॉर्ड डफरिन को पत्र लिखा THE NATION WICH CAN PRODUS A MAN LIKE BALBHADR SINGH MUST HAVE A SEPRATE BATALIYAN OF THERE ON. इसके पश्चात 5 मई 1887 को बलभद्र सिंह के नेतृत्व में गढ़वाल राइफल्स का गठन हुआ तथा 21 सितंबर 1890 को इसका मुख्यालय कालाडंडा वर्तमान लैंसडाउन बनाया गया.. 1891 में इसकी दो शाखाएं- 2/3 क्वीन अलेक्जेंडर व 39 वी गढ़वाल रेजीमेंट ऑफ बंगाल इन्फेंट्री गठित की गई प्रथम विश्व युद्ध के दौरान फ्रांस में युद्ध कौशल के कारण इस रेजिमेंट के दरबान सिंह नेगी व मेहरबान सिंह नेगी विक्टोरिया क्रॉस से सम्मानित हुए.. सेना द्वारा 1915 में तुर्की सेना की आर्टिलरी को लूट कर लाया गया तथा समय-समय पर अनेक सैनिकों ने बहादुरी का परिचय दिया 1923 में सेनानायक लॉर्ड लारनशन ने इन सैनिकों के सम्मान में लैंसडाउन में रेजिमेंटल वार मेमोरियल बनाया जो वर्तमान में भी देखा जा सकता है.. 1948 के कश्मीर युद्ध के पश्चात 1962 के चीन युद्ध में जसवंत सिंह ने चीनी सेना के सम्मुख उनके क्षेत्र में बहादुरी का परिचय दिया जिस कारण चीनी सेना के द्वारा जसवंत सिंह का शव सम्मान पूर्वक भारत भेजा गया व गार्ड ऑफ ऑनर तथा महावीर चक्र प्रदान किया गया वर्तमान में वह स्थान जसवंतगढ़ कहलाता है। वर्तमान में रेजिमेंट को उसके अपने प्रदर्शन कौशल के लिए विभिन्न पुरस्कार प्रदान किए गए हैं इनकी तीन प्रमुख भावनात्मक विशेषताएं हैं इनके कुलदेवता बद्रीनाथ, इनका रेजिमेंटल वार ,दाएं कंधे पर लगाई जाने वाला स्कारलेट, पेशावर कांड के नायक वीर चंद्र सिंह गढ़वाली इसी रेजीमेंट के थे जिन्होंने 23 अप्रैल 1930 को पेशावर में निहत्थे अफगान सैनिकों पर गोली चलाने से इनकार कर दिया था...२३ अप्रैल १९३० को हवलदार मेजर चन्द्र सिंह गढवाली के नेतृत्व में रॉयल गढवाल राइफल्स के जवानों ने भारत की आजादी के लिये लड़ने वाले निहत्थे पठानों पर गोली चलाने से मना कर दिया था। बिना गोली चले, बिना बम फटे पेशावर में इतना बड़ा धमाका हो गया कि एकाएक अंग्रेज भी हक्के-बक्के रह गये, उन्हें अपने पैरों तले जमीन खिसकती हुई सी महसूस होने लगी। 2/18 Garhwal rifle

Wednesday, 29 January 2020

वन हरियाली या पारिस्थितिकी संतुलन

उत्तराखंड के लिए वन हरियाली या पारिस्थितिकी संतुलन बनाए रखने का पर्याय मात्र नहीं है यहां की 80 % जनता के जीवन का आधार भी वन ही है. बीसवीं सदी के उत्तरार्ध में औपनिवेशिक सत्ता ने जब वनों का वर्गीकरण कर उन पर सरकारी नियंत्रण करना आरंभ किया तब से लेकर उत्तराखंड स्थानीय लोगों की वनों पर नैसर्गिक अधिकारों के लिए लड़ाई जारी है यह लड़ाई मात्र वन उत्पाद प्राप्त करने के अधिकार तक सीमित नहीं है वरन यह पर्यावरण संरक्षण के आंदोलन का पर्याय बन चुके चिपको आंदोलन जैसे संघर्ष भी इसमें अंतर्निहित है. वन संरक्षण के सरकारी प्रबंधन के समांतर सामुदायिक या व्यक्तिगत स्तर पर लोगों ने अनेक उदाहरण प्रस्तुत किए हैं रक्षा सूत्र आंदोलन मैती आंदोलन सच्चिदानंद भारती विश्वेश्वर दत्त सकलानी जैसे लोग वन संरक्षण के सफल प्रयास उत्तराखंड वासियों को वन उत्पादों के उपभोक्ता होते हुए उन्हें स्वभाव से एक चौकीदार भी साबित करते हैं.. उत्तराखंड के कुल क्षेत्रफल 53483 का 64.84 प्रतिशत यानी 34661 वर्ग किमी क्षेत्र वन विभाग के नियंत्रण में है यह क्षेत्र विविधता की दृष्टि से महत्वपूर्ण होने के कारण उत्तराखंड में अन्य हिमालई क्षेत्रों की अपेक्षा संरक्षित क्षेत्रों का क्षेत्रफल अत्यधिक है राज्य में 1 बायोस्फीयर रिजर्व 7 नेशनल पार्क और 7 अभ्यारण अस्तित्व में है और ऐसे कई क्षेत्र चिन्हित किए गए हैं जिन्हें भविष्य में संरक्षित कर दिया जाना है... ग्रामीण जीवन आज भी प्राकृतिक संसाधनों जल जंगल और जमीन पर ही टिका हुआ है ग्रामीणों के जीवन यापन में खर्च हो रहे इन संसाधनों को यदि पैसे की कीमत में बदल कर देखा जाए तो उत्तराखंड को मनी ऑर्डर इकॉनमी कहने वाले अर्थशास्त्रियों को अपने निष्कर्ष बदलने पर मजबूर होना पड़ेगा. ऐतिहासिक तथ्य बताते हैं कि ब्रिटिश औपनिवेशिक राज के आने से पूर्व उत्तराखंड के लोग अपने वनों के अकेले मालिक थे अंग्रेजों ने जब यहां के वन संसाधनों का दोहन करने के लिए वनों का वर्गीकरण किया तो उन्हें स्थानीय जनों के तीखे तेवर का सामना करना पड़ा. लेकिन स्थानीय जनों को कुछ सीमित अधिकार तो प्राप्त हुए किंतु वनों पर सरकारी नियंत्रण की प्रक्रिया निरंतर चलती रही आजादी और अलग उत्तराखंड राज्य बन जाने के बाद भी यह सिलसिला जारी है वर्तमान में भी अभ्यारण नेशनल पार्क और कभी विश्व बैंक की जेएफएम परियोजना (संयुक्त वन प्रबंधन परियोजना)के रूप में यह दबाव दिखाई पड़ रहा है वनों का वर्गीकरण निम्न है। 1- आरक्षित वन- इस श्रेणी में वन विभाग के स्वामित्व वाले जंगल आते हैं इन वनों में जनता के लिए कुछ चराई, गिरी पड़ी लकड़ी उठाना, हक प्राप्त करने के लिए अधिकारियों द्वारा अनुमति दी जाती है जिसके एवज में स्थानीय जनता से यह अपेक्षा भी की जाती है कि वह जंगलों की रक्षा करें वह आग बुझाने जैसे कार्यों में मदद करें .. 2- रक्षित वन - इन वनों में सिविल वन. कटक पालिका वन नगरपालिका वन आते हैं जिस पर राजस्व विभाग का नियंत्रण रहता है लेकिन तकनीकी सलाह वन विभाग से ली जाती है 3- राष्ट्रीय उद्यान व अभयारण्य इन्हें संरक्षित क्षेत्र भी कहा जाता है यह वन्य जंतुओं के लिए सुरक्षित स्थान होता है जिससे उनकी संख्या में वृद्धि हो और वह विलुप्त ना हो जाए इसीलिए इन क्षेत्रों में सभी प्रकार की मानव गतिविधियां समाप्त कर दी जाती है वर्तमान में 1991 में लाए गए अधिनियम से प्रतिबंध की दृष्टि से अभयारण्य और राष्ट्रीय पार्क समान हो गए हैं 4- बायोस्फीयर रिजर्व - इस क्षेत्र में कोई कानूनी मान्यता नहीं है इस रिजर्व में मानव व प्रकृति के सह अस्तित्व विकास की अवधारणा अंतर्निहित है उत्तराखंड में नंदा देवी बायोस्फीयर रिजर्व घोषित है 5- वन पंचायत- वन संसाधनों को चिरस्थाई बनाने और उनके विवेक पूर्ण दोहन के लिए उत्तराखंड में वन पंचायत , लठ पंचायत .देववन जैसे तरीके इजाद किए गए हैं इनका प्रबंधन प्रारंभ से ही ग्रामीणों द्वारा अपने अनुभव से अर्जित ज्ञान और सहमति के द्वारा किया जाता रहा है 1927 के वन अधिनियम के तहत ब्रिटिश औपनिवेशिक काल में वनों पर सरकारी नियंत्रण के पश्चात सर्वप्रथम 1931 में वन पंचायत प्रणाली अस्तित्व में आई जिसमें वन क्षेत्र का संरक्षण तथा वन उत्पाद प्राप्त करने के लिए उप नियम बनाने का अधिकार ग्रामीणों के पास होता है पंचायत की भांति वन पंचायत में भी महिलाओं को 50% आरक्षण प्राप्त है.. केदारनाथ वन्य जीव विहार जनपद चमोली तथा रुद्रप्रयाग में 957 वर्ग किमी क्षेत्रफल में फैला है इसकी स्थापना सन् 1972 में की गयी , यहाँ मुख्यतः भूरा भालू, कस्तूरी मृग, हिम तेंदुआ, घुरल, काकड़ , जंगली सूअर आदि जीव पाये जाते है , यह उत्तराखंड का सबसे अधिक क्षेत्रफल वाला वन्य जीव विहार है| नन्धौर वन्य जीव विहार जनपद नैनीताल व चम्पावत में 270 वर्ग किमी क्षेत्रफल में फैला है इसकी स्थापना सन् 2012 में की गयी, यहाँ पर मुख्यतः भालू, बाघ, लंगूर आदि जानवर पाये जाते है द नेशनल टाइगर कंज़र्वेशन अथॉरिटी (NTCA) ने नंधौर वाइडलाइफ़ सैंक्चुअरी को राज्य में तीसरा टाइगर रिजर्व बनाने की सिफारिश की है। उत्तराखंड में 215 बाघों के साथ दुनिया के किसी भी रिजर्व में सबसे अधिक बाघों की आबादी है. नंधौर बाघ संरक्षण के लिए काफी आशाजनक है। इससे पहले यह भारतीय पर्यावरण और वन मंत्रालय द्वारा एक वन्यजीव अभयारण्य नंधौर परिदृश्य एक आरक्षित वन था। नंधौर मुख्य रूप से एक नमकीन जंगल है और 2002 के बाद से शिवालिक हाथी रिजर्व का एक हिस्सा रहा है। यह 2004 में था कि भारतीय वन्यजीव संस्थान ने नंधौर को एक संभव निवास स्थान के रूप में मान्यता दी थी। यह अभयारण्य तराई आर्क लैंडस्केप का एक हिस्सा है जो भारत में उत्तराखंड से नेपाल तक फैला हुआ है।. डॉक्टर अजय रावत ने बताया है की हाथियों के द्वारा जंगल में किसी एक स्थान पर मूत्र त्याग किया जाता है बाद में उस जगह पर से जंगल के अन्य जानवर अपने शरीर में नमक की पूर्ति करते हैं पर्यावरण से संबंधित कुछ अन्य अधिनियम- जलु प्रदूषण संबंधी-कानून रीवर बोडर्स एक्ट, 1956 जल (प्रदूषण निवारण एवं नियंत्रण ) अधिनियम, 1974 जल उपकर (प्रदूषण निवारण एवं नियंत्रण ) अधिनियम, 1977 पर्यावरण (संरक्षण) अधिनियम, 1986 वायु प्रदूषण संबंधी कानून फैक्ट्रीज एक्ट, 1948 इनफ्लेमेबल्स सबस्टा<सेज एक्ट, 1952 वायु (प्रदूषण निवारण एवं नियंत्रण ) अधिनियम, 1981 पर्यावरण (संरक्षण) अधिनियम, 1986 भूमि प्रदूषण संबंधी कानून फैक्ट्रीज एक्ट, 1948 इण्डस्ट्रीज (डेवलपमेंट एंड रेगुलेशन) अधिनियम, 1951 इनसेक्टीसाइडस एक्ट, 1968 अर्बन लैण्ड (सीलिंग एण्ड रेगयुलेशन) एक्ट, 1976 वन तथा वन्यजीव संबंधी कानून फोरेस्टस कंजरवेशन एक्ट, 1960 वाइल्ड लाईफ प्रोटेक्शन एक्ट, 1972 फोरेस्ट (कनजरवेशन) एक्ट, 1980 वाइल्ड लाईफ (प्रोटेक्शन) एक्ट, 1995 जैव-विविधता अधिनियम, 2002