Saturday, 26 October 2019
फ्वां बागा रे… इतिहास के पन्नों में....
वर्तमान में मानव वन्यजीव संघर्ष एक बड़ी चुनौती के रूप में सामने आ रहा है इसके संबंध में विभिन्न लोगों के मत सामने आ रहे हैं फ्वां बागा रे… गीत देश-विदेश टिक टॉक में यह ख्याति प्राप्त कर रहा है इस गीत के बोल मैं उत्तराखंड गढ़वाल मंडल रुद्रप्रयाग 1925 के दौर की घटनाओं से साम्यता रखते हैं जिसमें गीतकार द्वारा तत्कालीन रुद्रप्रयाग के नरभक्षी तेंदुए के खौफ को दर्शाया गया है इसका उल्लेख जिम कॉर्बेट ने अपनी पुस्तक में भी किया है
1926 के दौरान ‘रुद्रप्रयाग के नरभक्षी’ के नाम से कुख्यात हो चुके उस बाघ ने कुल 125 लोगों को अपना शिकार बनाया था. माना जाता है कि 1918 की महामारी के बाद जब लोगों ने कुछ लाशों को बिना जलाए ऐसे ही छोड़ दिया था, उन्हीं को खा कर यह बाघ नरभक्षी बन गया था. सबसे पहले उसने एक चरवाहे लड़के को उठाया उसके बाद एक औरत को उसके घर से. बाद में उसने अपने दोस्तों के साथ बीड़ी पी रहे एक आदमी को अपना शिकार बना लिया. इस नरभक्षी बाघ के किस्से दुनिया भर की पत्रिकाओं में छपना शुरू हो गए थे. एक साधु भी था जिसे सिर्फ इस वजह से अन्धविश्वासी लोगों की भीड़ ने जलाकर मार डाला क्योंकि उन्हें शक था कि उस साधु के भीतर उस नरभक्षी बाघ की आत्मा का निवास था. घोर निराशा के पश्चात सफल ना होने पर तत्कालीन ब्रिटिश सरकार द्वारा बाघ के शिकार के लिए जिम कार्बेट को यहां बुलाया गया.. कॉर्बेट का स्वागत इस तरह किया गया जैसे कि वे कोई युद्ध-नायक हों. लोग समझते थे उन्हें कोई ईश्वरीय शक्ति प्राप्त है.
इधर बाघ का आतंक बढ़ता जा रहा था. बैरिस्टर मुकुन्दी लाल ने भी उसे मारने का एक असफल प्रयास किया.
बात 1918 की है। करीब आठ वर्षों तक इस जंगल में तेंदुए का आतंक इस कदर था कि हर कोई इससे घबराता था।
1918 से 1926 तक गढ़वाल में करीब 500 वर्ग किलोमीटर के इलाके में शाम होते ही मौत का सन्नाटा पसर जाता था। ऐसे में हर कोई अपने पशुओं के साथ घरों में बंद हो जाया करता था। नरभक्षी तेंदुए का खौफ यूं ही यहां के लोगों के दिलों में नहीं बैठा था।
यह तेंदुआ आठ वर्षों में 125 लोगों को अपना निवाला बना चुका था। तेंदुए को पकड़ना या मारना पूरी तरह से नाकाम साबित होता जा रहा था। इंसानों और उनके मवेशियों को शिकार बनाने वाला यह तेंदुआ बेहद शातिर भी था। वह एक दिन नदी के इस ओर शिकार करता तो दूसरे दिन दूसरी तरफ। लंबे समय तक लोगों को यही लगता रहा कि इस इलाके में दो नरभक्षी सक्रिय हैं।
नरभक्षी तेंदुए के आतंक की खबरें इस इलाके से निकलकर ब्रिटेन के अखबारों की भी सुर्खियां बन चुकी थी। इतना ही नहीं ब्रिटेन की संसद में इसको लेकर हुई चर्चा में इस पर चिंता भी जताई गई। नरभक्षी तेंदुए को खत्म या पकड़ने के लिए आर्मी की स्पेशल यूनिट को भी तैनात किया गया, लेकिन उन्हें भी नाकामी के अलावा कुछ नहीं मिला। इस बीच तेंदुआ लगातार लोगों को अपना निवाला बनाता जा रहा था। तब यहां के गवर्नर ने मशहूर शिकारी और वन्यजीव प्रेमी #जिम कॉर्बेट से संपर्क किया। 1925 को उन्हें तेंदुए को मारने की इजाजत मिली।
जिम #कॉर्बेट यहीं पर पैदा हुए थे और उनका जीवन इन्हीं पहाडि़यों और जंगल में बीता भी था। वह यहां के चप्पे-चप्पे से वाकिफ थे। उनके पिता इसी इलाके में पोस्टमास्टर के पद से रिटायर हुए थे। भारत में रहते हुए जिम ने कई नरभक्षियों से लोगों को निजाद दिलाई थी। इसका जिक्र उन्होंने अपनी किताब Man-Eaters of Kumaon में किया भी है। जिस वक्त तेंदुए को मारने के लिए जिम को कहा गया तो लोगों को भी लगने लगा था कि अब उन्हें जल्द ही इस आदमखोर से मुक्ति मिल जाएगी। इससे पहले उन्होंने चंपावत की नरभक्षी बाघिन को मारकर वहां के लोगों को डर से मुक्ति दिलाई थी। इस बाघिन ने कुमाऊं और नेपाल में करीब 436 लोगों को मारा था।
जब नरभक्षी तेंदुए को मारने की उन्हें अनुमति मिल गई तो कुमाऊं से गढ़वाल पैदल ही पहुंच गए। हालांकि इस तेंदुए को मारने के लिए जिम को काफी मशक्कत करनी पड़ी थी। यह तेंदुआ उनकी सोच से ज्यादा चालाक भी था। एक तरफ जिम लगातार तेंदुए की खोज में रात दिन एक कर रहे थे, तो दूसरी तरफ वह एक के बाद एक इंसानों को अपना शिकार बनाता जा रहा था। शिकार बनने से पहले तेंदुए ने कई बार जिम को छकाया और उनकी गोली का निशाना बनने से बच गया।
आखिरकार 26 मई 1926 की रात को जिम ने इस तेंदुए को मारने के लिए जाल बिछाया। इस रात को उनकी युक्ति काम कर रही थी और तेंदुआ भी उनके बिछाए जाल में फंसता जा रहा था। तेंदुए को देखते ही जिम ने उस पर गोली दाग दी और कुछ ही पलों में तेंदुआ रात के सन्नाटे में जंगल में कहीं गायब हो गया। हालांकि इस सन्नाटे में उसके तेजी से गुर्राने की आवाज जरूर सुनाई दी। जिम उस वक्त तक नहीं जानते थे कि तेंदुआ जिंदा है या मारा गया है। इस पुष्टि के लिए जिम ने तेंदुए की तलाश की जो अगली सुबह रुद्रप्रयाग के पास पहाड़ में खत्म हुई। तेंदुआ वहां पर बुरी तरह से घायल मिला, जिम ने उसको देखते ही दूसरी गोली उसके आर-पार कर दी। तेंदुआ अब पूरी तरह से मर चुका था।
तेंदुए की मौत के साथ ही लोगों को उसके आतंक से भी निजाद मिल चुकी थी। लेकिन जिम को उसको खत्म करने की खुशी तो थी, लेकिन साथ ही दुख भी था। उनका वन्यजीव प्रेम उनकी खुशी में बाधक बन रहा था। जिम कॉर्बेट ने जब उस बूढ़े तेंदुए को देखा तो पता चला कि कुछ शिकारियों की नाकाम कोशिश की वजह से तेंदुआ अपना एक नुकीला दांत खो बैठा था। इसकी वजह से वह जानवरों का शिकार नहीं कर पाता था, लिहाजा उसका रुख इंसानों की तरफ हो गया था। इंसान उसके लिए आसान शिकार था। जिम ने मृत पड़े तेंदुए को प्यार से सहलाया। उस वक्त वह तेंदुए की मौत से व्याकुल थे।
इसके बाद उन्होंने लोगों को वन्यजीवों के प्रति जागरुक बनाने और उन्हें बचाने की मुहिम भी छेड़ी..
जिम कॉर्बेट की ही सलाह पर 1936 में #ब्रिटिशसरकार ने उत्तराखंड में एशिया का पहला नेशनल पार्क बनाया। जिम कॉर्बेट के भारत छोड़कर #केन्या जाने के बाद उनके मित्र और उत्तर प्रदेश के पहले मुख्यमंत्री गोविंद बल्लभ पंत ने पार्क का नाम जिम कॉर्बेट नेशनल पार्क कर दिया।
देश और एशिया के इस पहले नेशनल पार्क का नाम तीन बार बदला। 1936 से पहले इसका नाम #हेलीनेशनल पार्क हुआ करता था। यह नाम उस समय यहां के गवर्नर मालकम हेली के नाम पर रखा गया था। आजादी के बाद इसका मशहूर वन्यजीव प्रेमी और निशानेबाज जिम कॉर्बेट के नाम पर कॉर्बेट नेशनल पार्क कर दिया गया। 1954-55 में इसका नाम फिर बदला और इसको #रामगंगानेशनल पार्क कर दिया। लेकिन एक वर्ष बाद ही इसको दोबारा #कॉर्बेटनेशनलपार्क कर दिया गया।
वर्तमान में भी #मानववन्यजीवसंघर्ष घटनाएं बढ़ रही है इस स्थिति में उत्तराखंड में #आदमखोर घोषित होने पर उसके शिकार के लिए #लखपतसिंह को बुलाया जाता है लखपत सिंह अब तक 53 आदमखोरों का शिकार कर चुके हैं।
उत्तराखंड के प्रमुख शिकारी लखपत सिंह रावत पेेशे से तो शिक्षक है लेकिन वह शिकारी के नाम से विख्यात है। वर्तमान में गैरसैण बीआरसी में समन्वयक पद पर तैनात है लखपत सिंह ने पहला नरभक्षी बाघ का शिकार 2001 में किया था। 2011 तक वह कई नरभक्षी बाघों का शिकार करके जिम कॉर्बेट का रिकार्ड तोड़ चुके थे। लखपत सिंह के दादा लक्षम सिंह ब्रिटिश शासनकाल में सेनानी थे और सेना से रिटायर होने के बाद भी अंग्रेज उन्हें शिकार के लिए बुलाया करते थे।
पत्र-पत्रिकाओं पुस्तक साक्षात्कार पर आधारित..
गौरव कुमार शोधार्थी इतिहास विभाग डीएसबी परिसर कुमाऊं विश्वविद्यालय नैनीताल
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